नानक नाम जहाज है चढे़ सो उतरे पार


गुरु नानक देव जी सिखों के प्रथम गुरु माने जाते हैं। इन्हें सिख धर्म का संस्थापक भी माना जाता है। गुरु नानक जी का जन्मदिन प्रकाश दिवस के रूप में ह्यकार्तिक पूर्णिमाह्ण के दिन मनाया जाता है। इस दिन जगह-जगह जुलूस निकाले जाते हैं और गुरुद्वारों में ह्यगुरु ग्रंथ साहिबह्ण का अखंड पाठ किया जाता है। नानक देव जी के जीवन के अनेक पहलू हैं। वे जन सामान्य की आध्यात्मिक जिज्ञासाओं का समाधान करने वाले महान दार्शनिक, विचारक थे तथा अपनी सुमधुर सरल वाणी से जनमानस के हृदय को झंकृत कर देने वाले महान संत कवि भी थे। उन्होंने लोगों को बेहद सरल भाषा में समझाया कि सभी इंसान एक दूसरे के भाई हैं। ईश्वर सबका साझा पिता है, फिर एक पिता की संतान होने के बावजूद हम ऊंचे-नीचे कैसे हो सकते है।

वाहे गुरु नानक परगटया
सिख इतिहास के आधिकारिक ग्रंथों के अनुसार, आज से 545 साल पहले लाहौर के पास तलवंडी नामक गांव में बैसाख सुदी 3 संवत 1526 यानी 15 अप्रैल 1469 को एक बच्चे ने जन्म लिया। उसके पिता का नाम मेहता कालू और माता का नाम तृप्ता था। पिता गांव के पटवारी थे। सिख सम्प्रदाय के प्रवर्तक गुरु नानक जी की सम्पूर्ण काव्यमय वाणी गुरु ग्रंथ साहिब के जपुजी साहिब खंड एक के मुताबिक, कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही सिखों के आदि गुरु संत श्री नानक देव जी की जयंती और प्रकाश पर्व मनाया जाता है। इन्होंने लगभग 974 शब्द और 19 राग लिखे हैं। उनके सभी शब्द और राग अनंत भक्तिमय हैं और निराकार परमेश्वर की तरफ ध्यान आकर्षित करते हैं। गुरुवाणी के शुरू में उन्होंने सबसे पहले जो दोहा लिखा है वह है-
ओम सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरू।
अकाल मूरति अजूनी सैभं गुरु प्रसादि।।
यानी कि ओमकार रूपी परमेश्वर का एक ही नाम है और यही सत्य है। वह सम्पूर्ण सृष्टि का करता पुरुष है। यह ब्रह्मांड उसी परमेश्वर के इशारे पर चल रहा है। वह निर्भय है, उसका किसी से वैर नहीं है। उसकी कोई मूर्ति नहीं है, उसका कोई रूप या आकार नहीं है। वह अजन्मा है, यानी परमात्मा योनि और जन्म-मरण से रहित है। उस परमात्मा को पाना गुरु की कृपा पर ही निर्भर करता है।

बचपन की एक घटना
बचपन में जब गुरु नानक देव जी स्थानीय पंडित के पास पढ़ाई करने नहीं गये, तो उनके पिता ने उन्हें गाय-भैंस चराने के लिए जंगल में भेज दिया। जंगल में जाकर गाय-भैंसें चरते-चरते स्थानीय जमीदार राय बुलार के खेतों में घुस गये और थोड़ी ही देर में सारे खेत चट कर गये। राय बुलार को गुस्सा आया और उन्होंने आदमी भेजकर कालू मेहता को बुलवाया। कालू मेहता और नानकी देवी, जो कि उनकी बड़ी बहन थी। वे अपने नानक की इस करतूत से बहुत खफा हुए और उन्हें ढूंढने के लिए जंगल में निकल पड़े। जंगल में जाकर देखा कि नानक जी एक मेड़ के सहारे लेटे हुए ध्यान मग्न हैं और एक काला कोबरा उनके पीछे से आकर फन फैलाए हुए चेहरे पर छाया किए सामने है। जैसे ही कालू मेहता और नानकी वहां पहुंचे सांप अंतरध्यान हो गया। घर वालों को उस दिन पता लगा कि नानक दैवी शक्ति से युक्त कोई   अवतारी संत हैं।


जात-पात के विरोधी
गुरु नानक साहिब जात-पात का विरोध करते थे। उन्होंने समस्त हिंदू समाज को बताया कि मानव जाति तो एक ही है, फिर जाति के कारण यह ऊंच-नीच क्यों। गुरु नानक देव जी कहते थे कि तुम मनुष्य की जाति पूछते हो, लेकिन जब व्यक्ति ईश्वर के दरबार में जायेगा तो वहां जाति नहीं पूछी जायेगी, सिर्फ उसके कर्म देखे जायेंगे। इसलिए आप सभी जाति की तरफ ध्यान न देकर अपने कर्मों को दूसरों की भलाई में लगाओ। इसी कारण नानक देव जी ने जात-पात को समाप्त करने और सभी को समान दृष्टि से देखने के भाव से ही अपने अनुयायियों के बीच लंगर की प्रथा शुरू की थी। जहां सब छोटे-बड़े, अमीर-गरीब एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। आज भी दुनिया भर के तमाम गुरुद्वारों में उसी लंगर की व्यवस्था चल रही है, जहां हर समय हर किसी को भोजन उपलब्ध होता है। इसमें सेवा और भक्ति का भाव मुख्य होता है। नानक देव जी अपनी गुरुवाणी जपुजी साहिब में कहते हैं कि नानक उत्तम-नीच न कोई! अर्थात् ईश्वर की निगाह में सब समान हैं। यह तभी हो सकता है, जब व्यक्ति ईश्वर नाम द्वारा अपना अहंकार दूर कर लेता है। गुरु नानक साहब हिंदू और मुसलमानों के बीच एक सेतु थे। हिंदू उन्हें गुरु और मुसलमान पीर पैगम्बर के रूप में मानते हैं। भक्तिकालीन हिंदी साहित्य के अनुसार गुरु नानक देव जी एक रहस्यवादी संत और समाज सुधारक थे।

10 साल में पंडित को पढ़ाया पाठ
उनके पिता जब उन्हें 10 साल की उम्र में पंडित को बुलाकर जनेउ पहनाने लगे तो वह बोले, यह क्या है?  पंडित ने कहा, जनेउ हिंदुओं की उच्च जाति होने की निशानी है। जनेउ धारण करने से आप पवित्र हो जायेंगे और संसार में आप एक  उच्च जाति के हिंदू माने जायेंगे। तब गुरु नानक बोले, नहीं पंडित जी, यह धागा तो शरीर के साथ ही रह जायेगा। अंतिम समय में शरीर जलेगा तो यह धागा भी जल जायेगा। मुझे आप कोई ऐसा धागा या जनेउ दें जो मरने के बाद भी हर समय मेरे साथ रहे। मुझे जिस जनेउ की आवश्यकता है उसके लिए दया रूपी कपास होना चाहिए, संतोष रूपी सूत होना चाहिए, संयम की गांठ होनी चाहिए और वह जनेउ सत्य की पूरक होनी चाहिए। वास्तव में प्रत्येक जीव के लिए यही आध्यात्मिक जनेउ है। इस जनेउ को न ही मैल लगता है, न ही वह टूटती है, न ही यह गुम होती है और न ही आग में जलती है। यह जनेउ आत्मा को परमात्मा से मिलाने में तार का काम करती है। गुरु नानक की यह बात सुनकर पंडित आश्चर्यचकित रह गये और उस बच्चे को निहारते रहे।


गुरुनानक देव की दस शिक्षाएं 
>>ईश्वर एक है।
>>सदैव एक ही ईश्वर की उपासना करो।
>>ईश्वर सब जगह और प्राणी मात्र में मौजूद है।
>>ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता।
>>ईमानदारी से और मेहनत कर के उदरपूर्ति करनी चाहिए।
>>बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न किसी को सताएं।
>>सदैव प्रसन्न रहना चाहिए। ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा मांगनी चाहिए।
>>मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से जरूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।
>>सभी स्त्री और पुरुष बराबर हैं।
>>भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिए जरूरी है पर लोभ-लालच और संग्रहवृत्ति बुरी है।

 मूर्ति पूजा के आलोचक
एक बार भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति के आगे कुछ लोग पूजा-पाठ और आरती कर रहे थे, लेकिन नानक जी उस आरती से कुछ दूर जाकर बैठ गये। बाद में वहां के कर्ताधर्ताओं ने पूछा कि आप आरती में क्यों नहीं बैठे? गुरु नानक जी ने उत्तर दिया कि मैं तो एक दूसरी आरती कर रहा था। मैं इस मानव के द्वारा बनायी गई मूर्ति की आरती नहीं कर पाऊंगा। गुरु जी ने कहा कि यह सारा आकाश एक थाल है, जिसमें सूर्य और चंद्रमा रूपी दीपक जल रहे हैं। सुगंध वाले फूल और चंदन के वृक्ष आदि धूप और अगरबत्ती के समान हैं। हवा की लहरें चंवर ढुला रही हैं। और दिन-रात ये आरती होती रहती है। ऐसे प्रभु की आरती की इस मूर्ति के सामने की जाने वाली आरती से तुलना नहीं की जा सकती। नानक जी का अभिप्राय था कि मूर्ति पूजन से कोई लाभ नहीं है। मूर्ति पूजा करने से हमें कुछ नहीं मिल सकता। यह मूर्ति उस अगम अगोचर भगवान की नहीं है जो हमसे कोसों दूर है। इस पत्थर की मूर्ति के आगे माथा रगड़ना महज जंगल में चिल्लाने जैसा है। गुरु नानक जी ने अपने अनुयायियों को वहम, शगुन-अपशकुन, अंधविश्वास के चक्कर में रहना, शादी-विवाह या दूसरे शुभ कार्य का मुहूर्त निकलवाना, जात-पात के चक्कर में फंसना, मूर्ति रखना, पितृ कर्म श्राद्ध करना, राखी बांधना और तिलक लगवाना, लोहड़ी जलाना, मौन व्रत रखना, पूजा के नाम पर नंगे या भूखे रहना अथवा नंगे पांव चलना सख्त मना किया है। गुरु जी ने आगे सिख समुदाय को आदेश दिया है कि कीर्तन करें, नाम जपें, हक की कमाई खाएं, समाज सेवा करें, ईश्वर का ध्यान करें, सबको एक नजर से देखें, मेहनत और ईमानदारी की कमाई करके उसमें से एक हिस्सा जरूरत मंदों को दें। स्त्रियों को बराबर का दर्जा दें। ये सभी आदेश नानक जी ने शब्द और कीर्तन के जरिए समय-समय पर कहे हैं और इनका उदहरण गुरुवाणी में यथावत मिलता है।


वाणी में राग और रस
गुरु नानक की वाणी में शांत एवं शृंगार रस की प्रधानता है। इन दोनों रसों के अतिरिक्त, करुण, भयानक, वीर, रौद्र, अद्भुत, हास्य और वीभत्स रस भी मिलते हैं। उनकी कविता में वैसे तो सभी प्रसिद्ध अलंकार मिल जाते हैं, लेकिन उपमा और रूपक अलंकारों की प्रधानता है। कहीं-कहीं अन्योक्तियां बड़ी सुन्दर बन पड़ी हैं। गुरु नानक ने अपनी रचना में उन्नीस रागों का प्रयोग किया है, वो हैं- सिरी, माझ, गऊड़ी, आसा, गूजरी, बडहंस, सोरठि, धनासरी, तिलंग, सही, बिलावल, रामकली, मारू, तुखारी, भरेउ, वसन्त, सारंग, मला, और प्रभाती।

मृत्यु
गुरु नानक की मृत्यु 1539 में हुई। इन्होंने गुरुगद्दी का भार गुरु अंगददेव (बाबा लहना) को सौंप दिया और स्वयं करतारपुर में 'ज्योति' में लीन हो गये। गुरु नानक आंतरिक साधना को सर्वव्यापी परमात्मा की प्राप्ति का एकमात्र साधन मानते थे। वे रूढि़यों के कट्टर विरोधी थे। गुरु नानक अपने व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्मसुधारक, समाजसुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु-सभी के गुण समेटे  हुए थे।


नानक नाम जहाज है चढे़ सो उतरे पार नानक नाम जहाज है  चढे़ सो उतरे पार Reviewed by saurabh swikrit on 2:36 am Rating: 5

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