जगत के नाथ जगन्नाथ



जगन्नाथ रथयात्रा भारत में मनाये जाने वाले धार्मिक महामहोत्सवों में सबसे प्रमुख तथा महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह रथयात्रा न केवल भारत अपितु विदेशों से आने वाले पर्यटकों के लिए भी ख़ासी दिलचस्पी और आकर्षण का केंद्र बनती है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार 'जगन्नाथ' की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है।  वर्तमान रथयात्रा में जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध हैं। जगन्नाथ मंदिर में पूजा, आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन धर्मावलम्बियों ने भी प्रभावित किया है। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है।   झारखंड के कोने-कोने में रथयात्रा को लेकर विशेष उत्साह देखने को मिलता है। खासकर राजधानी रांची के धुर्वा एवं रातु में इसकी विशेष धूम रहती है। राज्य के चारो ओर से लोग यहां मेला देखने के लिए आते हैं। इस बार धुर्वा जगन्नाथपुर मंे मेला को लेकर  विशेष तैयारियां की गयी है। भीड़ से निपटने के लिए प्रसाशन ने विशेष टीम वहां मौजूद है। आइये जानते हैं इस मेले से जुड़ी कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्यों के बारे में।
रथ खिंचने से होती है मोक्ष की प्राप्ति
जगन्नाथ स्वामी, नयन पथगामी भवतु में... के जयघोष के बीच भगवान जगन्नाथ, बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ रथारुढ़ होकर मौसीबाड़ी जायेंगे। इस ऐतिहासिक पल का गवाह बनने के लिए राज्य और आसपास के क्षेत्रों से लाखों श्रद्धालु रांची में इकट्ठा होंगे। लक्षार्चना और विष्णु सहस्रनाम पाठ के बाद भगवान का रथ खींचा जायेगा। रथ से बंधी रस्सी को छूने की होड़ देखते ही बनती है। आधा किलोमीटर के इस सफर में लगने वाले डेढ़ घंटे से ज्यादा समय प्रमाण है कि आस्था किस कदर हिलोरें लेती हैं। मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ के रथ की रस्सी को खिंचने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
सुरक्षा के रहेंगे पुख्ता इंतजाम
जगन्नाथपुर रथ यात्रा के मद्देनजर सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किये गये हंै। सुरक्षा को लेकर 32 दंडाधिकारी, 25 अधिकारी और 350 जवान को लगाया गया है। सुरक्षा को लेकर एसडीओ सदर आदित्य कुमार आनंद और डीएसपी हटिया शिवेन्द्र कुमार को विधि व्यवस्था का प्रभार दिया गया है। सभी दंडाधिकारी और सभी पुलिसकर्मियों को मंगलवार दोपहर एक बजे से प्रतिनियुक्त कर दिया गया है। पर्याप्त संख्या में सुरक्षा बलों को लगाया गया है। सादे लिबास में महिला-पुरुष के जवानों को लगाया गया है। इन्हें पॉकेटमारों और असमाजिक तत्वों पर अविलंब कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया है। सुरक्षा के लिहाज से दो वाच टावर भी बनाये गये हैं। जिससे मेला परिसर में नजर रखी जायेगी। ट्रैफिक की अलग व्यवस्था की गयी है। नयी व्यवस्था में एचइसी विधानसभा की ओर से आने वाले वाहन जिन्हें मौसीबाड़ी जगरनाथुपर मंदिर होते हुए रिंग रोड की ओर जाना हो वैसे वाहन शहीद मैदान से शालीमार बाजार, प्रभात तारा मैदान और जेएससीए स्टेडियम से दाहिने मुड़ कर तिरिल मोड़ होते हुए अपने गंतव्य की ओर जायेंगे। रिंग रोड की तरफ से आने वाले वाहन जिन्हें शहर की ओर आना हो वैसे वाहन तिरिल मोड़ से जेएसीए स्टेडियम, प्रभात तारा, शालीमार बाजार, होते हुए शहर की ओर आयेंगे। विधानसभा की तरफ से जिन्हें मेला जाना हो वैसे बड़ी वाहन, मिनी डोर को शहीद मैदान के पास ही बने पार्किंग स्थल पर पार्क करेंगे। इसके अलावा 12 ड्राप गेट बनाये गये है।

मेला को लेकर विशेष व्यवस्था
जगन्नाथ मंदिर से निकलने वाले रथ यात्रा मेले को लेकर पूरे इलाके में भक्तों की भीड़ को देखते हुए इस बार विशेष व्यवस्था की गयी है। मेला मार्ग की सड़कों की चौड़ाई बढ़ाते हुए फ्रेश कालीकरण किया गया है। रोड के दोनों साइड फ्लैंक की चौड़ाई को बढ़ाया गया है। मार्ग में पड़ने वाले बिजली के तारों को बदला गया है। हर रोड पर बिजली के वायर की क्रासिंग पर गार्ड वायर लगाया गया है। मेला के आयोजन स्थल को जेसीबी व लेबर की मदद से समतल किया जा चुका है।
सज गयीं दुकानें, लग गयें झूले
जगन्नाथपुर रथ मेले में ठेला- खोमचे वाले, झूला आदि वाले अपनी दुकानों को अंतिम रूप दे दिया है। मौत का कुआं, डिस्को डांस, जादू शो आदि की तैयारी पूरी हो चुकी है। मंदिर का रंग- रोगन, सीढि़यों व मार्ग का मरम्मत कार्य पूरा कर लिया गया है।
 1691 में हुआ है मंदिर का निर्माण
धुर्वा के जगन्नाथ मंदिर का निर्माण वर्ष 1691 में बड़कागढ़ के राजा ठाकुर एनीनाथ शाहदेव ने करवाया था। क्रिसमस के दिन मंदिर का निर्माण कार्य पूरा हुआ था। रांची का यह मंदिर जगन्नाथ पुरी के मंदिर की हूबहू कलाकृति है। इसका निर्माण ओडिशा शैली की तर्ज पर करवाया गया था। इस मंदिर में पूजा से लेकर भोग चढ़ाने का विधि-विधान भी पुरी जगन्नाथ मंदिर जैसा ही है।

बिहार सरकार ने करवाया था जीर्णोद्धार
6 अगस्त 1990 को अचानक इस मंदिर का एक हिस्सा टूट गया था। 1992 में बिहार सरकार और श्रद्धालुओं के सहयोग से इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया। शहर से ज्यादा ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं श्रद्धालु पुरी की तरह यहां भी रथ यात्रा निकाली जाती है। इस यात्रा में हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं। यहां आनेवाले श्रद्धालुओं में झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल के ग्रामीणों की संख्या ज्यादा होती है।
पांच किलो की चांदी के  मुकुट में  भगवान
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा इस बार अपने भक्तों के लिए और भी आकर्षक हैं। क्योंकि भगवान इस बार पांच किलो के चांदी के मुकुट के साथ श्रद्धालुओं को दर्शन देंगे। ये मुकुट रांची के सोना-चांदी कारोबारियों के अलावा कई सह्रदय लोगों ने योगदान देकर बनवाया है। कोलकाता में दक्ष कारीगरों ने एक माह की मेहनत के बाद भगवान श्री जगन्नाथ, बहन सुभद्रा एवं भाई बलराम के लिए मुकुट तैयार किया। इस पर डेढ़ लाख से अधिक रुपये का खर्च आया है। शनिवार को गांधी चौक के सोनार पट्टी में मुकुट का प्रदर्शन किया गया। बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं ने इसका अवलोकन किया। भक्तों ने सामर्थ्य के मुताबिक मुकुट तैयार करने में राशि दी है। संभवत: छह जुलाई को निकलने वाली जगन्नाथ की रथयात्रा में भगवान के विग्रहों को मुकुट धारण कराया जायेगा।
जगान्नाथ मन्दिर रांची में रथयात्रा का इतिहास
छोटानागपुर में उन दिनो नागवंशी राजाओ का आधिपत्य था। नागवंशी राजाओं ने ही कई जगहों पर भव्य मंदिरों का निर्माण कराया तथा विग्रह स्थापित कर विशेष पुजा-अर्चना की शुरुआत किया था। अपने गुरु हरिनाथ जी के आशीर्वाद से नागवंशी राजा  रघुनाथ शाह ने जगान्नाथ मंदिर की स्थापना 1739 में कराया था। लकिन इसका विस्तार एवं वृहद रूप देने का श्रेय नागवंशी राजा ठाकुर एनीनाथ शाहदेव को जाता है। झारखंड में जगरनाथपुर रथ मेला का इतिहास लगभग 323 वर्ष पुराना है। इस मेले का शुभारंभ 1691 में हुआ नागवंशी राजा ठाकुर एनीनाथ शाहदेव के द्वारा शुरू किया गया था। पुराने समय में झारखंड में आपस में हर जाति के लोग किस तरह एक दूसरे से मिल-जुल कर भाईचारा से रहते थे इसकी झलक जगरनाथपुर रथ मेला में झलकता था। श्री जगन्नाथ को घंसी जाति के द्वारा फूल दिया जाता था। मन्दिर की पहरेदारी की जिम्मेदारी मुस्लिम करते थे। विग्राहों को रथरूढ करने का काम राजवर जाति द्वारा की जाति थी। रथ यात्रा के समय विग्रह को पगड़ी मुंडा जाति द्वारा अर्पित किया जाता था, मिट्टी के बर्तन कुम्हार देते थे। उरांव जगन्नाथ भगवान को घंटी प्रदान करते थे। बड़ाई और लोहार रथ का निर्माण करता था तो करंज का तेल पहान देते थे। इस तरह पुराने समय में हर जाति के लोग मिल-जुल कर तथा सभी के भागीदारी के साथ मनाया जाता था। पर अब ये परंपरा समाप्त हो गया है। मंदिर के लिए एक ट्रस्ट बना दिया गया जो अब पूरे रथ यात्रा तथा मेले का कार्य देखती है। सारी पुरानी परंपरा लगभग समाप्त हो गयी है।
क्यों नहीं है, भगवान जगन्नाथ के हाथ-पैर 
भगवान जगन्नाथ तीनों लोकों के स्वामी हैं, इनकी भक्ति से लोगों की मनोकामना पूरी होती है। लेकिन खुद इनके हाथ-पांव नहीं हैं। जगन्नाथ पुरी में जगन्नाथ जी के साथ बलदेव और बहन सुभद्रा की भी प्रतिमाएं है। जगन्नाथ जी की तरह इनके भी हाथ-पांव नहीं हैं। तीनों प्रतिमाओं का समान रूप से हाथ-पांव नहीं होना अपने आप में एक अद्भुत घटना का प्रमाण है। जगन्नाथ जी के अद्भुत रूप के विषय में यह कथा है कि मालवा के राजा इंद्रद्युम्न को भगवान विष्णु ने स्वप्न में कहा, 'समुद्र तट पर जाओ वहां तुम्हें एक लकड़ी का लट्ठा मिलेगा उससे मेरी प्रतिमा बनाकर स्थापित करो।' राजा ने ऐसा ही किया और उनको वहां पर लकड़ी का एक लट्ठा मिला। इसी बीच देव शिल्पी विश्वकर्मा एक बुजुर्ग मूर्तिकार के रूप में राजा के सामने आये और एक महीने में मूर्ति बनाने का समय मांगा। विश्वकर्मा ने यह शर्त रखी कि जब तक वह खुद आकर राजा को मूर्तियां  नहीं सौंप दे, तब तक वह एक कमरे में रहेगा और वहां कोई नहीं आयेगा। राजा ने शर्त मान ली, लेकिन एक महीना पूरा होने से कुछ दिनों पहले मूर्तिकार के कमरे से आवाजें आनी बंद हो गयी। तब राजा को चिंता होने लगी कि बुजुर्ग मूर्तिकार को कुछ हो तो नहीं गया। इसी आशंका के कारण उसने मूर्तिकार के कमरे का दरवाजा खुलावाकर देखा। कमरे में कोई नहीं था, सिवाय अर्धनिर्मित मूर्तियों के, जिनके हाथ पांव नहीं थे। राजा अपनी भूल पर पछताने लगा तभी आकाशवाणी हुई कि यह सब भगवान की इच्छा से हुआ है। इन्हीं मूर्तियों को ले जाकर मंदिर में स्थापित करो। राजा ने ऐसा ही किया और तब से जगन्नाथ जी इसी रूप में पूजे जाने लगे। विश्वकर्मा चाहते तो एक मूर्ति पूरी होने के बाद दूसरी मूर्ति का निर्माण करते लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और सभी मूर्तियों को अधूरा बनाकर छोड़ दिया। इसके पीछे भी एक कथा है, बताते हैं कि एक बार देवकी रूक्मणी और कृष्ण की अन्य रानियों को राधा और कृष्ण की कथा सुना रही थी। उस समय छिपकर यह कथा सुन रहे कृष्ण, बलराम और सुभद्रा इतने विभोर हो गये कि मूर्तिवत वहीं पर खड़े रह गये। वहां से गुजर रहे नारद को उनका अनोखा रूप दिखा। उन्हें ऐसा लगा जैसे इन तीनों के हाथ-पांव ही न हों। बाद में नारद ने श्री कृष्ण से कहा कि आपका जो रूप अभी मैंने देखा है, मैं चाहता हूं कि वह भक्तों को भी दिखे। कृष्ण ने नारद को वरदान दिया कि वे इस रूप में भी पूजे जायेंगे। इसी कारण जगन्नाथ, बलदेव और सुभद्रा के हाथ-पांव नहीं हैं।

विश्व में प्रसिद्ध है पुरी रथयात्रा 
सागर तट पर बसे पुरी शहर में होने वाली 'जगन्नाथ रथयात्रा उत्सव' के समय आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है, वह और कहीं दुर्लभ है। इस रथयात्रा के दौरान भक्तों को सीधे प्रतिमाओं तक पहुंचने का बहुत ही सुनहरा अवसर प्राप्त होता है। जगन्नाथ रथयात्रा दस दिवसीय महोत्सव होता है। यात्रा की तैयारी अक्षय तृतीया के दिन श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों के निर्माण के साथ ही शुरू हो जाती है। देश-विदेश से लाखों लोग इस पर्व के साक्षी बनने हर वर्ष यहां आते हैं। भारत के चार पवित्र धामों में से एक पुरी के 800 वर्ष पुराने मुख्य मंदिर में योगेश्वर श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। साथ ही यहां बलभद्र एवं सुभद्रा भी हैं।
पुरी जगन्नाथ रथयात्रा से जुड़ी खास बात
*  पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर में भगवान श्रीकृष्ण, जगन्नाथ रूप में विराजित है। साथ ही यहां उनके बड़े भाई बलराम (बलभद्र या बलदेव) और उनकी बहन देवी सुभद्रा की पूजा की जाती है।
*  पुरी रथयात्रा के लिए बलराम, श्रीकृष्ण और देवी सुभद्रा के लिए तीन अलग-अलग रथ निर्मित किए जाते हैं। रथयात्रा में सबसे आगे बलरामजी का रथ, उसके बाद बीच में देवी सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ श्रीकृष्ण का रथ होता है। इसे उनके रंग और ऊंचाई से पहचाना जाता है।
*  बलरामजी के रथ को 'तालध्वज' कहते हैं, जिसका रंग लाल और हरा होता है। देवी सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' या 'पद्म रथ' कहा जाता है, जो काले या नीले और लाल रंग का होता है, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ को 'नंदीघोष' या 'गरुड़ध्वज' कहते हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है।
*  भगवान जगन्नाथ का नंदीघोष रथ 45.6 फीट ऊंचा, बलरामजी का तालध्वज रथ 45 फीट ऊंचा और देवी सुभद्रा का दर्पदलन रथ 44.6 फीट ऊंचा होता है।
*  ये सभी रथ नीम की पवित्र और परिपक्व काष्ठ (लकडि़यों) से बनाये जाते है, जिसे 'दारु' कहते हैं। इसके लिए नीम के स्वस्थ और शुभ पेड़ की पहचान की जाती है, जिसके लिए जगन्नाथ मंदिर एक खास समिति का गठन करती है।
*  इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या कांटे या अन्य किसी धातु का प्रयोग नहीं होता है। रथों के लिए काष्ठ का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है और उनका निर्माण अक्षय तृतीया से प्रारंभ होता है।
*  जब ये तीनों रथ तैयार हो जाते हैं, तब 'छर पहनरा' नामक अनुष्ठान संपन्न किया जाता है। इसके तहत पुरी के गजपति राजा पालकी में यहां आते हैं और इन तीनों रथों की विधिवत पूजा करते हैं और 'सोने की झाड़ू' से रथ मण्डप और रास्ते को साफ करते हैं।
*  आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा आरंभ होती है। ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं। कहते हैं, जिन्हें रथ को खींचने का अवसर प्राप्त होता है, वह महाभाग्यवान माना जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, रथ खींचने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है। शायद यही बात भक्तों में उत्साह, उमंग और अपार श्रद्धा का संचार करती है।
*  सात दिनों के बाद यात्रा की वापसी होती है। इस रथ यात्रा को बड़ी बड़ी रस्सियों से खींचते हुए ले जाया जाता है। यात्रा की वापसी भगवान जगन्नाथ की अपनी जन्म भूमि से वापसी कहलाती है। इसे बाहुड़ा कहा जाता है। इस रस्सी को खिच्ंाने या हाथ लगाना अत्यंत शुभ माना जाता है।
पुरी जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर दफन है श्रीकृष्ण की मौत से जुड़ा एक राज
परंपराओं और ऐतिहासिक धरोहरों की भूमि भारत के हृदय में कई ऐसे भी राज दफन हैं, जो कहानियां बनकर आज भी सुने और सुनाये जाते हैं। हिन्दू धर्म के बेहद पवित्र स्थल और चार धामों में से एक जगन्नाथ पुरी की धरती को भगवान विष्णु का स्थल माना जाता है। जगन्नाथ मंदिर से जुड़ी एक बेहद रहस्यमय कहानी प्रचलित है, जिसके अनुसार मंदिर में मौजूद भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्वयं ब्रह्मा विराजमान हैं। ब्रह्मा कृष्ण के नश्वर शरीर में विराजमान थे और जब कृष्ण की मृत्यु हुई तब पांडवों ने उनके शरीर का दाह-संस्कार कर दिया लेकिन कृष्ण का दिल (पिंड) जलता ही रहा। ईश्वर के आदेशानुसार पिंड को पांडवों ने जल में प्रवाहित कर दिया। उस पिंड ने लट्ठे का रूप ले लिया। राजा इन्द्रद्युम्न, जो कि भगवान जगन्नाथ के भक्त थे, को यह लट्ठा मिला और उन्होंने इसे जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर स्थापित कर दिया। उस दिन से लेकर आज तक वह लट्ठा भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के भीतर है। हर 12 वर्ष के अंतराल के बाद जगन्नाथ की मूर्ति बदलती है लेकिन यह लट्ठा उसी में रहता है। इस लकड़ी के लट्ठे से एक हैरान करने वाली बात यह भी है कि यह मूर्ति हर 12 साल में एक बार बदलती तो है लेकिन लट्ठे को आज तक किसी ने नहीं देखा। मंदिर के पुजारी जो इस मूर्ति को बदलते हैं, उनका कहना है कि उनकी आंखों पर पट्टी बांध दी जाती है और हाथ पर कपड़ा ढक दिया जाता है। इसलिए वे ना तो उस लट्ठे को देख पाये हैं और ही छूकर महसूस कर पाये हैं। पुजारियों के अनुसार वह लट्ठा इतना सॉफ्ट होता है मानो कोई खरगोश उनके हाथ में फुदक रहा है। पुजारियों का ऐसा मानना है कि अगर कोई व्यक्ति इस मूर्ति के भीतर छिपे ब्रह्मा को देख लेगा तो उसकी मृत्यु हो जायेगी। इसी वजह से जिस दिन जगन्नाथ की मूर्ति बदली जानी होती है, उड़ीसा सरकार द्वारा पूरे शहर की बिजली बाधित कर दी जाती है। यह बात आज तक  एक रहस्य ही है कि क्या वाकई भगवान जगन्नाथ की मूर्ति में ब्रह्मा का वास है।  
जगत के नाथ जगन्नाथ जगत के नाथ जगन्नाथ Reviewed by saurabh swikrit on 4:12 am Rating: 5

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