हमीन भगवाने भरोसे हियई बाबू


हमीन भगवाने भरोसे हियई  बाबू
 सौरभ स्वीकृत

झारखंड की दलित आबादी सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से पूरी तरह उपेक्षित है। चूंकि राज्य की जनसंख्या में इनका प्रतिशत महज 12 फीसदी है, इसीलिये पलामू और चतरा को छोड़कर इनका कोई सशक्त सांगठनिक आवाज भी मुखर नहीं हो पाया है। एकजुटता न हो पाने के कारण इनकी आवाज कोई नहीं सुनता। झारखंडी भुइयां दलितों को भी इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। आमूमन पलामू और चतरा जिलों में निवास करने वाली भुइयां आबादी विभिन्न स्तरों पर स्वास्थ्य की विविध समस्याओं से जूझ रही है। बच्चों और महिलाओं के स्वास्थ्य की स्थिति भी भयानक है। भुखमरी, गरीबी, अशिक्षा, बेबशी आदि जैसे शब्द इनके लिए कम पढ़ जाते हैं।
चतरा, बगरा, लावालौंग, इटखोरी जैसे अल्पविकसित कस्बाई बजारों में भुइयां दलितों को बतौर स्वास्थ्य सुविधाएं प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और आंगनबाड़ी की मौजूदगी तो नसीब होती है, मगर यह समझ पाना मुश्किल है कि चतरा के महज आठ स्वास्थ्य केन्द्रों के भरोसे जिले की तकरीबन 10 लाख की आबादी का इलाज कैसे होगा? एक स्वास्थ्य केन्द्र के भरोसे एक लाख से ज्यादा लोगों का इलाज। भुइयां दलितों की अधिकतर आबादी कृषि पर निर्भर है और कृ षि मौनसून पर निर्भर है।  इनकी आर्थिक स्थिति का अंदाज इससे लग सकता है कि इनके पास साल भर खाने का अनाज नहीं होता और ये मजदूरी करने को विवश होते हैं।  बच्चों में अधिकतर कुपोषित हैं और महिलाएं रक्त अल्पता का शिकार यानि एनेमिक हैं। जो शहर के निकट हैं, वे मलीन बस्तियों में है उनका जीवन संक्रामक रोगों से पीडि़त है।
जहां तक स्वास्थ्य सेवा की बात है वह इतना कम है कि गंभीर रोग पर इनका ईलाज मौत ही है। नक्सलियों के आंतक की आड़ में कोई स्वास्थ्य केन्द्रों तक नहीं जाता।   नक्सलियों का हौवा उड़ाकर बेशक स्वास्थ्यकर्मी अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ लें, लेकिन स्वास्थ्य के जिन भीषण परिस्थितियों का सामना कंकाल जैसे बच्चे लावालौंग के एकांत बीहड़ों में नंगे बदन करते हैं। पियार, गेठी, डेमटा खाकर गर्भवती महिलाओं की क्या स्थिति होगी, यह बताने की जरूरत नहीं।  सड़क से 10-15 किमी तक कटे गांवों में विकट स्थितियों में प्रसव पीड़ा से तड़प रही महिलाएं और हिचकोले खिलाते रास्ते.....। राज्य में हजार में 73 बच्चे जन्म लेते मौत की गाल में समा जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में सिर्फ 11 फीसदी बच्चों का जन्म ही अस्पताल अथवा स्वास्थ्य केन्द्र में होता है। चतरा और पलामू जैसे गरीब जिलों में तो स्थिति और भी गंभीर है। ऊपर से तकरीबन 65 फीसदी गांव ऐसे हैं जहां सालों भर आवाजाही तक संभव नहीं। साल में तो 2-3 महीने ये गांव कई कारणों से अन्य क्षेत्रों से पूरी तरह कट जाते हैं। ऐसे में बरसात के मौसम में गंभीर स्थिति में चिकित्सकीय आवश्यकताएं कैसे पूरी होती होंगी
समस्या सिर्फ स्वास्थ्य केन्द्रों की अपर्याप्त और चिकित्साकर्मियों की अनुपस्थिति ही नहीं। बल्कि सवाल यह है कि क्या महज 3-4 शैयावाले स्वास्थ्य केन्द्रों में इलाके की सभी महिलाओं का प्रसव संभव है? तो फिर इस हवाई जागरूकता अभियान का मतलब क्या है- परिवार की गर्भवती महिलाओं का प्रसव अस्पताल अथवा स्वास्थ्य केन्द्र में ही करवाएं। जच्चा-बच्चा दोनों स्वस्थ-सुरक्षित। झारखंड के गांवों में राज्य की इन कलंकित सच्चाइयों को जाना जा सकता है। चतरा के लावालौंग से कई किमी कटे सिलदाल, चान्ही, बड़की, मलगू, होशिर जैसे सुदूरवर्ती गांवों में तो 75 से 90 फीसदी तक बच्चों को खसरा, पोलियो, बीसीजी, डीपीटी जैसे जीवनरक्षक टीकों का संपूर्ण खुराक नसीब नहीं हो पाता। ? लावालौंग के जितन गंझू कहते हैं कि हमीन भगवाने भरोसे हियई बाबू। जितने गांव उतने तरह के वैकल्पिक उत्तर मिलेंगे।
बरसात में करीब 60 फीसदी बच्चे श्वसन रोग, त्वचा रोग, निमोनिया, डायरिया आदि से पीडि़त हो जाते हैं। कुआं संक्रमित, तालाब गंदा और हरदम भींगी मिट्टी की झोपडि़यां। मक्खी, मच्छर, तमाम तरह के बरसाती कीड़े, जीवाणु-विषाणु का एकसाथ हमला। ऊपर से भूख के मारे कुपोषित-कमजोर शरीर। रोग निरोधी क्षमता शून्य। सरकार की योजनाओं से यह वर्ग कोसो दूर है।
राज्य में दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति
37 फीसदी दलित गरीबी रेखा से नीचे अपना जीवन गुजार रहे हैं।
54 फीसदी दलित बच्चे कुपोषण के शिकार हैं।
जन्म लेने वाले एक हजार बच्चों में से 83 बच्चे एक साल की उम्र के पहले ही मर जाते हैं।
दलित आबादी का 45 फीसदी हिस्सा पढ़ना और लिखना नहीं जानते हैं।
महिलाओं को लिंग और जाति के आधार पर दो उत्पीड़न से गुजरना पड़ता है।
सिर्फ 27 फीसदी गर्भवती महिलाओं को अस्पताल की सुविधा मिल पाती है।
अपने मकान वाले एक तिहाई दलितों को बुनियादी सुविधाएं नहीं है।
33 फीसदी गांवों में सरकारी स्वास्थ्यकर्मी दलितों के घर जाने से इंकार कर देते हैं।
27.6 फीसदी गांवों में दलितों को आज भी पुलिस थाने में घुसने से रोक दिया जाता है।
37.8 फीसदी सरकारी स्कूलों में बच्चों को आज भी दोपहर के भोजन के दौरान अलग बैठाया जाता है।
तकरीबन 50 फीसदी (48.4) गांवों में आज भी दलितों को सार्वजनिक जल स्रोतो से पानी लेने से रोका जाता है।
100 में 21 बच्चे (50 फीसदी) कम वजन वाले पैदा होते हैं। जबकि सौ में 12 बच्चे पांचवां साल पूरा करने से पहले मर जाते हैं।
कुल आबादी के 80 फीसदी (79.8) लोग गांव में रहते है।
ग्रामीण क्षेत्रों में दलित महिलाओं की साक्षरता दर 37.8 फीसदी है।

स्थिति ऐसी है कि  एससी/एसटी अत्याचार अधिनियम के तहत दर्ज मुकदमों में महज 15.71 फीसदी में ही सजा हो पाती है। जबकि 85.37 फीसदी मामले लंबित हैं। इसके विपरीत्त आईपीसी की धारा के तहत दर्ज मामलों में 40 फीसदी अधिक में कार्रवाई होती है।
    सरकारी अमलो की घोषणाओं से अलग इनकी हालात देख कर राज्य की खराब हालत के बारे में कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है। अब खस्ताहाल राज्य सरकार से ज्यादा कुछ विशेष हो, विशेष राज्य का दर्जा मिले तो स्थिति सुधरने की आशा जिंदा हो सकती है।


 
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