लोकतंत्र के रास्ते पर अफगानिस्तान


 सौरभ स्वीकृत 

लोकतंत्र की सबसे बड़ी ताकत है चुनाव। जहां भारत में 7 अप्रैल से वोट डाले जा रहे हैं। वहीं पड़ोसी देश अफगानिस्तान में भी 5 अप्रैल को राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोट डाले गए। आफगानिस्तान भी लोकतंत्र के रास्ते पर चल पड़ा है। तमाम अनिश्चितताओं और चिंता के बीच पांच अप्रैल को वोट डाले गए। वोटर बडे ही उत्साह के साथ लोकतंत्र के इस पर्व में हिस्स लिए। तालिबान ने इस चुनाव में बाधा डालने के लिए हिंसा की धमकी दी थी, लेकिन मतदाताओं ने दृढ़ निश्चय का परिचय दिया। इस चुनाव में कुल एक करोड़ 20 लाख मतदाताओं में से 70 लाख मतदाताओं ने वोट डाला। यानि कि मतदान तकरीबन 50 फीसद हुआ। चुनाव की देखरेख के लिए 350,000 अफगानी सुरक्षा बल और पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया था, लेकिन इतनी तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद हिंसा और रक्तपात की घटनाओं को पूरी तरह रोका नहीं जा सका। चुनाव से पूर्व एक जर्मन फोटोग्राफर की हत्या कर दी गयी और ठीक चुनाव वाले दिन अलग-अलग इलाकों में हिंसा हुयी।

अफगानिस्तान पिछले 12 वर्ष से हिंसा की चपेट में है। ज्यादातर अमेरिकी व नाटो सेना इस साल के अंत तक अफगानिस्तान छोड़ देगी। विदेशी सेना की वापसी के बाद देश की सुरक्षा का जिम्मा अफगानी सेना पर होगा। राष्ट्रपति करजई को पिछले साल द्विपक्षीय सुरक्षा समझौते पर हस्ताक्षर करने थे लेकिन उन्होंने इस पर हस्ताक्षर नहीं किए। करजई के मुताबिक उनका उत्तराधिकारी यह काम करेगा।

किनके बीच हुआ है मुकाबला
वर्तमान चुनाव उस लंबी प्रक्रिया का हिस्सा है जिसमें राष्ट्रपति हामिद करजई का स्थान लेने के लिए कुल आठ उम्मीदवार मैदान में हैं। हालांकि इसमें से केवल तीन उम्मीदवार ही तगड़े दावेदार हैं। इनमें एक अब्दुल्ला अब्दुल्ला हैं, जो ताजिक नेता और पूर्व विदेश मंत्री हैं। अफगानिस्तानी राजनीति में दूसरा प्रसिद्ध नाम जलमई रसूल का है, जो कि पूर्व विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं। इन्हें करजई का करीबी माना जाता है। तीसरा नाम अशरफ गनी अहमदजई है। वह पूर्व वित्तामंत्री और प्रतिष्ठित टेक्नोक्रेट हैं, हालांकि उनका राजनीतिक आधार सीमित है। चुनाव कार्यक्रम के मुताबिक मतों की गणना का काम 20 अप्रैल तक पूरा हो जाएगा और शुरुआती रुझान 24 तक आने की उम्मीद है।


................तो फिर से हो सकती है चुनाव
आफगानिस्तान के विशेषज्ञों की माने तो वर्ष 2009 के चुनाव की तरह इस बार भी किसी एक उम्मीदवार को स्पष्ट तौर पर 50 फीसद से अधिक वोट मिलने की कोई उम्मीद नहीं है। इस प्रक्रिया में फर्जी मतों और मतदान केंद्रों पर कब्जे की तमाम शिकायतों का पहले से ही अंदेशा था। नतीजों की समीक्षा का काम 27 अप्रैल तक जारी रहने की उम्मीद है। अंतिम परिणाम 14 मई तक घोषित हो सकते हैं। यदि पूर्व की भविष्यवाणी सच होती है यानी किसी भी उम्मीदवार को 50 फीसद से अधिक वोट नहीं मिलते हैं तो 28 मई को फिर से चुनाव की प्रक्रिया दोहरानी होगी और तब अंतिम चुनाव परिणाम जून-जुलाई तक आने की उम्मीद की जा सकती है। इस प्रकार यह चुनाव एक लंबी प्रक्रिया है और पांच अप्रैल को हुआ मतदान इसका प्रथम चरण मात्र है।


महिलाओं ने दिखाया साहस
इस चुनाव की एक असाधारण बात यह रही कि अफगानिस्तान के मतदाता, विशेष रूप से महिलाओं ने तालिबान धमकी को दरकिनार करते हुए गोली के ऊपर मत की शक्ति को महत्व देते हुए साहस का परिचय दिया और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के प्रति अपनी आस्था जतायी। काबुल में पदासीन होने वाले नए राष्ट्रपति और उनकी सरकार के सामने आने वाले समय में कई जटिल चुनौतियां होंगी, लेकिन इनमें आम लोगों की सुरक्षा और अफगानिस्तान की आर्थिक सेहत के मद्देनजर अस्थिर राजकोषीय हालात की चिंता प्रमुख है।

बनने वाली सरकार को अमेरिका पर देना होगा ध्यान
नये राजनीतिक प्रक्रिया से सत्ता में आने वाली सरकार को अमेरिका के साथ रिस्ते पर ध्यान देना होगा। करजई के कार्यकाल के अंतिम समय में अमेरिका से रिश्ते बहुत तनावपूर्ण और नाजुक थे। बदले दौर में द्विपक्षीय सुरक्षा समझौता शीर्ष प्राथमिकता होगी, क्योंकि इसके अभाव में अमेरिका अपनी सैन्य टुकडि़यों को अफगानिस्तान में नहीं रखने वाला। अमेरिकी सेना की पूर्ण अनुपस्थिति में काबुल की नयी सरकार के लिए अपने कार्यकाल के प्रथम वर्ष में जटिल सुरक्षा चुनौतियों का सामना करना होगा। अफगानिस्तान में सुरक्षा और स्थिरता के संदर्भ में पाकिस्तान प्रमुख वार्ताकार है और पाकिस्तान सेना की खुफिया इकाई आइएसआइ और उसके सहयोगी संगठनों की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। इनका अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा के पार के चरमपंथी संगठनों पर या तो पूर्ण नियंत्रण होगा अथवा ये इनके प्रभाव में होंगे। वर्तमान में नवाज शरीफ सरकार पाकिस्तान तालिबान के साथ शांति वार्ता के जरिये किसी समझौते पर पहुंचने का प्रयास कर रही है। पाकिस्तान सरकार तालिबान से संतुष्ट है इसलिए भविष्य में अफगानिस्तान में उसे अपनी दक्षिणपंथी विचारधारा और एजेंडे के लिए भी इस्लामाबाद का समर्थन मिलता रहेगा।

लोकतांत्रिक तरीके से पहली बार होगा सत्ता का हस्तांतरण
इस चुनाव के जरिए देश के 5000 बरसों के इतिहास में पहली बार लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता का हस्तांतरण हो रहा है। लाखों लोगों ने चुनाव प्रक्रिया में जिस तरह से बढ़ा-चढ़कर हिस्सा लिया उससे लगाता है कि यहां की जनता अपने शसकों से उब चुकी है। अब इन्हें भी लोकतंत्रिक सरकार चाहिये जिसे लोग अपनी मर्जी से चुने न कि किसी के दबाव में। इस चुनाव में लोगों के उत्साह को देखते हुए मतदान के समय को एक घंटा और बढ़ाया गया था इससे जहीर है कि लोग तमाम चुनौतियों और हिंसक धमकियों के बीच अपनी सरकार बनाना चाहते हैं। लेकिन इस देश की बिड़म्बना यह रही कि पूरे देश में जहां दो सौ फर्जी मतदान की शिकायतें सामने आयीं वहीं कुछ इलाकों में खाली मतदान पेटियों को नदी में बहाने दी जाने की खबर मीडिया में आयी।

अफगानिस्तान कभी आर्याना था
अफगानिस्तान दक्षिण पश्चिम एशिया का एक स्वतंत्र मुसलमानी राज्य है, जो पामीर पठार के दक्षिण पश्चिम में लगभग 7000 मील तक फैला है। इसके उत्तर में रूसी तुर्कस्तिान, पश्चिम में फारस, दक्षिण एवं दक्षिण पूर्व में पाकिस्तान, तथा पूर्व में चीन का सिक्यांग एवं भारत का काश्मीर प्रदेश स्थित है। आज अफगानिस्तान और इस्लाम एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं, इसमें शक नहीं लेकिन यह भी सत्य है कि वह देश जितने समय से इस्लामी है, उससे कई गुना समय तक वह गैर-इस्लामी रह चुका है इस्लाम तो अभी एक हजार साल पहले ही अफगानिस्तान पहुंचा, उसके कई हजार साल पहले तक वह आर्यों, बौद्घों और हिन्दुओं का देश रहा है। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी, महान संस्कृत वैयाकरण आचार्य पाणिनी और गुरू गोरखनाथ पठान ही थे।  अफगान लड़कों के नाम कनिष्क और हुविष्क तथा लड़कियों के नाम वेदा और अवेस्ता भी रखा जाता था। अफगानिस्तान की सबसे बड़ी होटलों की श्रृंखला का नाम ह्यआर्यानाह्य था और हवाई कम्पनी भी ह्यआर्यानाह्य के नाम से जानी जाती थी। भारत के पंजाबियों, राजपूतों और अग्रवालों के गोत्र के नाम अब भी अनेक पठान कबीलों में मिल जाते हैं। मंगल, स्थानकजई, कक्कर, सीकरी, सूरी, बहल, बामी, उष्ट्राना, खरोटी आदि गोत्र पठानों के नामों से जुड़ा है।

विश्व के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋ ग्वेद में पख्तून लोगों और अफगान नदियों का उल्लेख है।   जिन नदियों को आजकल आमू, काबुल, कुर्रम, रंगा, गोमल, हरिरूद आदि नामों से जानते हैं, उन्हें प्राचीन भारतीय लोग क्रमश: वक्षु, कुभा, क्रुम, रसा, गोमती, हर्यू या सर्यू के नाम से जानते थे। जिन स्थानों के नाम आजकल काबुल, कन्धार, बल्ख, वाखान, बगराम, पामीर, बदख्शां, पेशावर, स्वात, चारसद्दा आदि हैं, उन्हें संस्कृत और प्राकृत-पालि साहित्य में कुभा या कुहका, गन्धार, बाल्हीक, वोक्काण, कपिशा, मेरू, कम्बोज, पुरुषपुर, सुवास्तु, पुष्कलावती आदि के नाम से जाना जाता था।  हेलमंद नदी का नाम अवेस्ता के हायतुमन्त शब्द से निकला है, जो संस्कृत के ह्यसतुमन्तह्य का अपभ्रन्श है इसी प्रकार प्रसिद्घ पठान कबीले ह्यमोहमंदह्य को पाणिनी ने ह्यमधुमन्तह्य और अफरीदी को ह्यआप्रीताह्य कहकर पुकारा है। महाभारत में गान्धारी के देश के अनेक सन्दर्भ मिलते हैं। हस्तिनापुर के राजा संवरण पर जब सुदास ने आक्रमण किया तो संवरण की सहायता के लिए जो ह्यपस्थह्य लोग पश्चिम से आए, वे पठान ही थे। इस्लाम के नौ सौ साल के हमलों के बावजूद अफगानिस्तान का एक इलाका 100 साल पहले तक अपनी प्राचीन सभ्यता को सुरक्षित रख पाया था उसका नाम है काफिरिस्तान। यह स्थान पाकिस्तान की सीमा पर स्थित चित्रल के निकट है। तैमूर लंग, बाबर तथा अन्य बादशाहों के हमलों का इन ह्यकाफिरोंह्य ने सदा डटकर मुकाबला किया और अपना धर्म-परिवर्तन नहीं होने दिया।
 

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