आरक्षित लोकसभा सीटों की हकीकत


सौरभ स्वीकृत
आजादी के 67 साल बाद भी क्या जाति के आधार पर निर्वाचन क्षेत्रों का आरक्षण होना चाहिए या नहीं? यह एक ऐसा सवाल है जिसपर राजनीतिक दल खुलकर बोलने से हमेशा बचते रहे हैं। इस मसले पर देश के राजनीति विशेषज्ञों की भी एक राय नहीं है। आरक्षण एक संवेदनशील और सियासी मुद्दा बन चुका है। यह सच है कि लोकसभा की 79 सीटें अनुसूचित जाति तथा 41 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित रहने से आरक्षित संसदीय क्षेत्र के अन्य वर्गो के बीच आक्रोश और मनमुटाव उत्पन्न होता है लेकिन इस मुद्दे को तिहासिक संदर्भ और यथार्थ के रूप में देखा जाना चाहिए। आरक्षण की नीति शुरू से ही विवादों में घिरी रही है। उच्च जाति और निम्न जाति का अंतर पाटने के लिए नौकरियों, शिक्षा, प्रशासन और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी, और ऐसे वर्ग के लिए अलग से कोटा निर्धारित किया गया था। इस व्यवस्था की यह कहते हुए आलोचना की जाती रही है कि इससे योग्य लोग हतोत्साहित होंगे और वोट बैंक की राजनीति बढ़ेगी।

गांधी और अम्बेडकर में था विरोधाभास
आरक्षण ने अपनी जड़ें आजादी के पहले से ही जमानी शुरू कर दी थीं। ब्रिटिशकाल के दौरान मुसलमानों ने ब्रिटिश सरकार से सत्ता में भागीदारी के लिए प्रतिनिधित्व की मांग की। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमजे मैकडॉनल्ड ने वर्ष 1932 में अवॉर्ड देने का ऐलान किया, जिसे कम्युनल अवॉर्ड के नाम से भी जाना जाता है। इससे मुसलमानों और अन्य वर्गो के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस अवॉर्ड के अनुसार मुसलमानों, सिखों, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन, यूरोपियन और दलितों को पृथक प्रतिनिधित्व मिला।
इस कदम के पीछे अंग्रेजों की बांटो और राज करो की मंशा थी। महात्मा गांधी ने इस कदम का विरोध किया लेकिन डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने इसका समर्थन किया। अम्बेडकर ने इसे सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा देने के हथियार के रूप में देखा। महात्मा गांधी का विरोध यह था कि इससे हिन्दू समाज बंट जाएगा। गांधी इस मुद्दे पर हड़ताल पर बैठ गए। बाद में एक समझौता हुआ जिसे पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। समझौते के अनुसार कुछ निश्चित संसदीय क्षेत्र दलितों के लिए आरक्षित रखे गए। आजादी के बाद संसद, राज्यों की विधानसभाओं, स्थानीय निकायों और ग्राम पंचायतों में संविधान के तहत 15 फीसदी सीटें आरक्षित रखी गई। इसी तरह 7.5 फीसदी सीटें जनजातियों या आदिवासियों के लिए रखी गयी।

दलों को जनाधार खिसकने का डर
संविधान संशोधन के जरिए लोकसभा, विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण 2026 तक के लिए बढ़ा दिया गया है। अनुच्छेद-330 के तहत लोकसभा की सीट एससी और एसटी के लिए आरक्षित रहेगी। अनुच्छेद-332 (1) राज्यों की विधानसभाओं में इन्हें आरक्षण की सुविधा देता है। शुरूआत में आरक्षण केवल दस वर्ष के लिए था। अपना जनसमर्थन खोने के डर से कोई भी राजनीतिक दल आरक्षण का विरोध करने का साहस नहीं दिखा पाता है। जब इस मसले पर खुद दलित, आदिवासी और शोषित वर्ग सामने आकर सार्वजनिक मंच पर अपनी बात रखेगा, तभी बात आगे बढ़ेगी। 

सिर्फ एक वोट बैंक बनकर रह गया!
इतिहास में कुछ अजीब घटनाएं होती हैं, जो आने वाली कई पीढि़यों को प्रभावित करती हैं। संविधान के अनुच्छेद 330, 332 और 334 भी कुछ ऐसे ही हादसों का नतीजा है । दरअसल, संविधान सभा की अल्प-संख्यक संबंधी उपसमिति ने विधायिकाओं में आरक्षण ना केवल अनुसूचित जाति, बल्कि मुसलमानों और ईसाइयों के लिए भी प्रस्तावित किया, ताकि पाकिस्तान या अलग से इन वर्गो की चुनाव व्यवस्था की बात खत्म हो जाए। जब यह प्रस्ताव संविधान सभा के अध्यक्ष को भेजा गया तो लगभग सहमति भी बन गयी थी, पर जब पाकिस्तान के निर्माण की बात पर मुस्लिम लीग ने मुहर लगा दी। डॉ. एच. सी. मुखर्जी ने प्रस्ताव किया कि अनुसूचित जाति को छोड़ बाकी के लिए आरक्षण का प्रस्ताव खारिज कर दिया जाए। इस संशोधन को मान लिया गया।
डॉ. अम्बेडकर ने इस मुद्दे पर बोलते हुए अनुसूचित जाति को आगाह किया कि विधायिकाओं में आरक्षण के मामले में उन्हें कभी भी समझौता नहीं करना चाहिए। उनके इन विधायिकाओं में समुचित प्रतिनिधित्व से ही अन्य संरक्षण का मार्ग प्रशस्त होगा। आज समूचे भारत में यह जाति (जन जाति क्षेत्र विशेष तक ही सीमित है) लगभग समान रूप से फैली है, लिहाजा यह सभी दलों के लिए महज एक समेकित वोट बैंक के अलावा कुछ भी नहीं रही।

अम्बेडकर की सोच का दुरूपयोग
एक राजनीतिक विशेषज्ञ का कहना है कि बाबा साहब अंबेडकर दूरदर्शी नेता थे। उन्हें इस बात का गहरा अहसास था कि बराबरी का दर्जा पाने में सदियों से शोषित-उत्पीडित दलितों को बहुत समय लगेगा और समतल खेल मैदान सुलभ कराने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की अनिवार्यता से इनकार नहीं किया जा सकता। वह यह भी भली-भांति जानते थे कि सिर्फ आरक्षण से सामाजिक न्याय सुनिश्चित नहीं हो सकता। इसलिए उनका जोर दलित-विपन्न तबके में शिक्षा के प्रसार और राजनीतिक जागृति पर रहा। आरक्षण उनके लिए समय सीमाबद्ध तरकीब ही थे। दुर्भाग्य यह है कि आज उनके अनुयाई इस बात को भुला चुके हैं। चुनावी राजनीति की वोट बैंक वाली मजबूरी के कारण कोई भी राजनीतिक दल आरक्षण को समाप्त करने या संशोधित करने का जोखिम नहीं उठा सकता।

एक विडंबना यह भी.....
इन आरक्षित संसदीय तथा विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों का फेरबदल निरंतर होता रहता है। जनसंख्या में अनुसूचित जाति या जनजाति की बहुलता को देख कुछ वर्षो के लिए किसी निर्वाचन क्षेत्र को आरक्षित घोषित किया जाता है, फिर अन्य निर्वाचन क्षेत्र इस सूची में शामिल हो जाते हैं। पहला निर्वाचन क्षेत्र सामान्य बन जाता है। इससे वहां से चुने जाने वाले उम्मीदवारों के भविष्य पर निर्णायक प्रभाव पड़ता है। आरक्षित क्षेत्र से वही प्रत्याशी चुनाव लड़ सकता है, जो आरक्षण के अनुसार अनुसूचित जाति या जनजाति का हो। सामान्य निर्वाचन क्षेत्र के आरक्षित घोषित होने से या आरक्षित क्षेत्र के सामान्य में बदलने से दिग्गज निरापद नहीं रह जाते! हाल में संसदीय तथा विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्परिसीमन ने इस गुत्थी को और उलझा दिया है। यह बात हमेशा विवाद पैदा करती रही है कि किन निर्वाचन क्षेत्रों को किस लॉटरी के अनुसार आरक्षित सूची में डाला जाता है।

क्या यह निर्णय निष्पक्ष होता है अथवा अपने किसी प्रबल विरोधी को ध्वस्त करने के लिए उसके पाले-पोसे निर्वाचन क्षेत्र को सिर्फ उसे हराने के लिए तहस-नहस किया जाता है। जो सवाल सबसे ज्यादा चिंताजनक है वह यह कि क्या आजादी के पैंसठ साल बाद भी आरक्षित निर्वाचन क्षेत्र के अभाव में अनुसूचित जातियों, जनजातियों के प्रत्याशी संसद या विधानसभा में पहुंचने में असमर्थ हैं। इस (राजनीतिक) अखाड़े में पहलवानी के लिए न तो शिक्षा की अनिवार्यता है और न ही किसी अनुभव की।

होता है धनबल का प्रयोग
जहां तक बात धनबल या बाहुबल की है तो अब तक यही देखने को मिलता रहा है कि जिस तरह सरकारी नौकरियों तथा शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण का लाभ दलित-शोषित वर्ग की मलाईदार परत को ही मिलता रहा है, वैसे ही राजनीति में भी एक नए श्रेष्ठि वर्ग ने आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया है। चुनाव के वक्त ऐसे सीटों पर प्रत्याशी खड़ा करने के लिए जाति के आड़ में ऐसे व्यक्ति को खड़ा किया जाता है जो धनवान के साथ- साथ बाहुबली हो। जिससे जितने की उम्मीद ज्यादा हो। जातियों के वोट के साथ धन से वोट भी लिया जाता है।



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