कब आयेंगे इनके सुनहरे दिन

                                                                   मजदूर दिवस विशेष
सौरभ स्वीकृत
मजदूर दिवस के अवसर पूरे देश भर में बड़े-बड़े वायदे और सभाएं की जाती है। सेमिनार का आयोजन किया जाता है। इन वायदों को सुनकर तो लगता है जैसे मजदूर वर्ग सभी वर्गों से आगे निकल जायेगा। इन्हें किसी बात की कोई तकलीफ नहीं होगी। वाकई इनके दिन अच्छे होने वाले हैं, लेकिन होता कुछ नहीं है दिन के बीतने के  साथ ही लोग सबकुछ भूल जाते हैं। मजदूरों को पसीने से लथपथ, फट्टे कपड़े, भूखे पेट, नंगे पैर जैसी स्थितियों में देखा जा सकता है। ये दूसरों के दूसरों के खाने के लिए अन्न, पहनने के लिए कपडे़, चलने के लिए सड़क, रहने के लिए घर बनाते हैं, लेकिन इनके खुद का जीवन असहाय और बेचारगी से भरी होती है। ग्रामीण इलाकों में तो मजदूरों को उनके दिवस पर भी काम करते देखा जा सकता है। सिर्फ निजी क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि सरकारी कार्यालयों में दैनिक मजदूर काम करते हुये दिख जाते हैं। इनके इस दिन काम करने के पीछे यह भी मजबूरी होती है कि यदि वे एक दिन बैठे तो इनके चल्हे जलने में शामत आ जायेगी ।  बहुत से कारखानों के मालिक उनकी इन्हीं मजबूरियों का फायदा उठाकर उनका खून चूसते रहते हैं और बदले में उनके श्रम का वाजिब दाम तक भी उन्हें उपलब्ध नहीं कराया जाता।

यह देश की विडम्बना ही है कि देश की आजादी के लगभग सात दशक बाद भी, कई श्रम कानूनों को अस्तित्व में लाने के बावजूद आज तक ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हो सका जो मजदूरों को उनके श्रम का उचित मूल्य दिला सके। भले ही इस संबंध में कुछ कानून बने हैं, पर वे सिर्फ ढोल का पोल ही साबित हुये हैं। हालांकि इस संबंध में एक सच यह भी है कि अधिकांश मजदूर या तो अपने अधिकारों के प्रति अनभिज्ञ्य होते हैं या फिर वे अपने अधिकारों के लिए इस वजह से आवाज नहीं उठा पाते कि कहीं इससे नाराज होकर उनका मालिक उन्हें काम से ही निकाल दे और उनके परिवार के समक्ष भूखे मरने की नौबत आ जाये। देश में हर वर्ष श्रमिकों को उनके श्रम के वाजिब मूल्य, उनकी सुविधाओं आदि के संबंध में दिशा-निर्देश जारी करने की परम्परा सी बन चुकी है। समय-समय पर मजदूरों के लिए नये सिरे से मापदंड निर्धारित किये जाते हैं, लेकिन इनको क्रियान्वित करने की फुर्सत किसी को नहीं है। यह सिर्फ फाइलो तक सिमट कर रह जाती है। इनके बेहतरी के लिए बना श्रम मंत्रालय भी बना लेकिन इसका कार्यवाही संतोषजनक दिखायी नहीं देती है।


देश भर में शायद ही कोई ऐसी जगह हो जहां मजदूरों का खुलेआम शोषण न होता हो। आज भी स्वतंत्र भारत में बंधुआ मजदूरों की बहुत बड़ी तादाद है। सबसे बदत्तर स्थिति तो बाल एवं महिला श्रमिकों की है। बच्चों व महिला श्रमिकों का आर्थिक रूप से शोषण होता ही है, उनका शारीरिक रूप से भी जमकर शोषण किया जाता है, लेकिन अपने और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए चुपचाप सब कुछ सहते रहना इनकी कमजोरी बन गयी है। सरकार कारखानों के मालिकों के मनमाने रवैये पर कभी भी कोई लगाम नहीं लगा पाती क्योंकि चुनाव का दौर गुजरने के बाद मजदूरों से तो कुछ नहीं मिलता, हां चुनाव फंड के नाम पर सब राजनीतिक दलों को मोटी-मोटी थैलियां कारखानों के इन्हीं मालिकों से मिल जाती है। आज के दौर में अधिकांश ट्रेड यूनियनों के नेता भी भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र का हिस्सा बन गये हैं, जो विभिन्न मंचों पर श्रमिकों के हितों के नाम पर नारे लगाते नजर आते हैं लेकिन अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए कारखानों के मालिकों से सांठगांठ कर मजदूरों के हितों पर कुल्हाड़ी चलाने में संकोच नहीं करते। देश की गिरती अर्थव्यवस्था के कारण जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों की स्थिति डामाडोल है वहीं मजदूरों के लिए दो वक्त की रोटी की तलाश करना चुनौती और संकट का विषय बन गया है।

न्यूनतम मजदूरी भी नही
एक ओर तो सरकार द्वारा सरकारी अथवा गैर-सरकारी क्षेत्र में काम करने पर मजदूरों को मिलने वाली न्यूनतम मजदूरी तय करने की घोषणाएं की जाती है, लेकिन देशभर में लगभग 40 करोड़ श्रमिकों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिल पाती है। यह बिडम्बना ही है कि निरंतर महंगाई बढ़ने के बावजूद आजादी के इतने सालों बाद भी मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी गुजारे के लायक भी नहीं हो पायी है।

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