सवा लाख से एक लड़ाऊं. चिडि़यों सों मैं बाज तड़ऊं


हिंदुस्तान को ऐतिहासिक मोड़ देने में राष्ट्रनायक गुरु गोबिन्द सिंह जी की विशेष भूमिका है। अत्याचार एवं जुल्म का प्रतिरोध करने के लिए जिस खालसे का उन्होंने सृजन किया, भविष्य में उसका प्रभाव भारतीय इतिहास में नजर आया। उनके लिए इंसान की एक ही जाति थी, मानवता। गुरु जी ने ऐसा जीवन दर्शन दिया जिसका पहला पाठ धर्म निरपेक्षता से जुड़ा हुआ था। आनंदपुर साहिब एवं पांउटा साहिब में उन्होंने नए साहित्य सृजन की जमीन तैयार की। उनके विद्या दरबार में भारतीय भाषाओं के 52 कवि थे। इन सभी ने गुरु जी के व्यक्तित्व से प्रेरणा लेकर अमर संस्कृत भारतीय साहित्य का हिंदी एवं पंजाबी में अनुवाद किया। यह भारतीय साहित्य का पुनर्सृजन था। भक्ति के नये अर्थ आम आदमी की जिंदगी को प्रभावित करने लगे। भक्ति कर्म से जुड़ी और कर्म राष्ट्रीय दुख-सुख का हिस्सा बना। गुरु जी द्वारा स्थापित सिख दर्शन और विचारधारा ने विश्व संस्कृति में नये अध्याय जोड़े। बेटों की शहादत पर गुरु जी ने कहा था कि मुझे अपने चार बेटों की कुर्बानी का दुख इसलिए नहीं है क्योंकि मेरे हजारों बेटे राष्ट्र के लिए जीवित हैं।

जीवन परिचय
17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत की सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक स्थिति अत्यंत शोचनीय थी और मूल्यों का पतन पराकाष्ठा पर था। औरंगजेब के दुराचारी शासन के अत्याचारों, उसकी धर्मांधता, असहिष्णु नीति व क्रूर दमन चक्र से उत्पन्न भय, निराशा व असंतोष से जनमानस त्रस्त था। उसी समय नवम् गुरु तेग बहादुर जी के घर माता गुजरी के गर्भ से पटना में 1666 को गोबिन्द सिंह जी का जन्म हुआ जिन्होंने अपनी तेजस्विता से सम्पूर्ण भारतीय जनमानस को प्रभावित किया। पटना के राजा फतेहचन्द, उनकी रानी तथा समस्त पटनावासी बाल गुरु के सौन्दर्य, तेज व निर्भयता से अभिभूत थे। उसी समय उनके पिता ने परिवार को पटना से आनंदपुर (पंजाब) बुला लिया। वहां अपार जनसमूह 'बाल प्रीतम' के दर्शनार्थ उमड़ पड़ा। आरंभ से ही वे विकट समस्याओं का समुचित समाधान खोजने में प्रयत्नशील हो गये ताकि एक नये युग की सृष्टि की जा सके। वे असाधारण व्यक्तित्व व बहुमुखी प्रतिभा के स्वामी थे। धर्म व दर्शन में उनकी गहरी पैठ थी। वे परमवीर योद्धा, कुशल सेनानी व दूरदर्शी राजनीतिक नेता भी थे। उनकी भक्ति व शक्ति के समन्वय ने ही विश्व के इतिहास में नया अध्याय जोड़ा। गुरु गोबिन्द सिंह जी ने युद्ध-कर्म को लोगों की मानसिकता का हिस्सा बनाकर दलित व शोषित वर्ग को पूर्ण सम्मान दिया। उन्होंने युद्ध-कर्म में इन वर्गों का सहयोग प्राप्त करके उन्हें योद्धा तथा वीर सैनिक बना दिया जिससे जात-पात तथा छुआछूत की भावना सदा के लिए समाप्त हो गई। उन्होंने समता व प्रजातंत्र का सिद्धांत अपनाया तथा हर तरह से राष्ट्रीय एकता का ध्यान रखा और अपने आप को ईश्वर का सेवक मानकर उसी के निर्देशानुसार अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सर्वस्व बलिदान कर दिया। अंतिम दिनों में वह नान्देड़ (महाराष्ट्र) आए तथा बंदा सिंह बहादुर को पंजाब जाकर अत्याचारियों से लड़ने की सलाह दी। यहीं 1708 में गुरु जी पर एक पठान ने धोखे से वार कर दिया जब वे विश्राम कर रहे थे। उन्हें गहरा जख्म हो गया। उन्होंने अपने शिष्यों को शोक न करने और गुरु ग्रन्थ साहिब को गुरु मानने का उपदेश दिया। अंतत: 7 अक्तूबर 1708 को गुरु जी ब्रह्मलीन हो गए।


क्यों कहे जाते हंै संत सिपाही
गुरु गोबिंद सिंह का जीवन संघर्ष, कुर्बानी और मानवता की सेवा की कहानी है। उन्होंने अन्याय और अत्याचार के खिलाफ एक सैनिक की तरह संघर्ष किया, लेकिन जीवन भर वे एक संत की तरह सादगी से रहे और लोगों में अपना प्रेम बांटते रहे। उनका कहना था कि इंसान, धरती पर मानवता की सेवा के लिए ईश्वर के भेजे गए दूत हैं और उनका ध्येय धरती पर शांति व पे्रम की अलख जगाना है। गोबिंद सिंह ईश्वर को सर्वशक्तिमान मान कर जीवन के संग्राम में कूदे। उनके अनुसार 'ओम' का अर्थ है - ब्रह्मा, विष्णु और महेश। जब हम ओम का उच्चारण करते हैं तो इसका तात्पर्य होता है कि हम इस संसार को जन्म देने, पालने और फिर नष्ट करने वाली शक्तियों के सामने अपना सिर झुकाते हैं। गुरु नानक देव ने इन शक्तियों को मानते हुए इसके साथ 'एक' का अंक लगा दिया था, जिसका अर्थ था कि इन तीनों महान शक्तियों को पैदा करने वाला ईश्वर एक ही है। यह गुरु जी ही थे कि जब सामने उनके पिता जी का पवित्र शीश लाया गया तो बजाए रोने-धोने के उन्होंने प्रतिज्ञा की कि जो शासन ऐसा अन्याय करता है, उसे वह खत्म करके ही चैन लेंगे। यह गुरु जी ही थे जिन्होंने अपने बच्चों में यह शक्ति भर दी कि वे पानी मांगे बगैर अंतिम सांस तक लड़ेंगे। इसी शक्ति का कमाल था कि उनके दोनों बेटे हंसते-हंसते दीवारों में जिंदा चिने गए, लेकिन उन्होंने उफ तक नहीं की।

खालसा पंथ
खालसा का अर्थ है खालिस यानी विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति। इसके अलावा हम यह कह सकते हैं कि खालसा हमारी मर्यादा और भारतीय संस्कृति की एक पहचान है, जो हर हाल में प्रभु का स्मरण रखता है और अपने कर्म को अपना धर्म मान कर जुल्म और जालिम से लोहा भी लेता है। गोबिन्द सिंह जी ने एक नया नारा दिया है- वाहे गुरु जी का खालसा, वाहे गुरु जी की फतेह। गुरु जी द्वारा खालसा का पहला धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। निर्धनों,असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है, वह खलिस है। वही सच्चा खालसा है। ये संस्कार अमृत पिलाकर गोबिन्द सिंह जी ने उन लोगों में भर दिए, जिन्होंने खालसा पंथ को स्वीकार किया था। 'जफरनामा' में स्वयं गुरु गोबिन्द सिंह जी ने लिखा है कि 'जब सारे साधन निष्फल हो जायें, तब तलवार ग्रहण करना न्यायोचित है'। गुरु गोबिन्द सिंह ने 1699 में धर्म एवं समाज की रक्षा हेतु ही खालसा पंथ की स्थापना की थी। खालसा यानी खालिस (शुद्ध), जो मन, वचन एवं कर्म से शुद्ध हो और समाज के प्रति समर्पण का भाव रखता हो। सभी जातियों के वर्ग-विभेद को समाप्त करके उन्होंने न सिर्फ समानता स्थापित की बल्कि उनमें आत्म-सम्मान और प्रतिष्ठा की भावना भी पैदा की। उनका स्पष्ट मत व्यक्त है- 'मानस की जात सभैएक है।' खालसा पंथ की स्थापना 1699 में देश के चौमुखी उत्थान की व्यापक कल्पना थी। एक बाबा द्वारा गुरु हरगोबिन्द को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनायी गई थी। एक आध्यात्मिकता की प्रतीक थी। दूसरी सांसारिकता की। गुरु गोबिन्द सिंह ने आत्मविश्वास एवं आत्मनिर्भरता का संदेश दिया था। खालसा पंथ में वे सिख थे, जिन्होंने किसी युद्ध कला का कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं लिया था। सिखों में समाज एवं धर्म के लिए स्वयं को बलिदान करने का जज्बा था।
एक से कटाने सवा लाख शत्रुओं के सिर
गुरु गोबिन्द ने बनाया पंथ खालसा 
पिता और पुत्र सब देश पे शहीद हुए
नहीं रही सुख साधनों की कभी लालसा
जोरावर फतेसिंह दीवारों में चुने गए
जग देखता रहा था क्रूरता का हादसा
चिडि़यों को बाज से लड़ा दिया था गुरुजी ने
मुगलों के सर पे जो छा गया था काल सा
गुरु गोबिन्द सिंह का एक और उदाहरण उनके व्यक्तित्व को अनूठा साबित करता है- पंच पियारा बनाकर उन्हें गुरु का दर्जा देकर स्वयं उनके शिष्य बन जाते हैं और कहते हैं- खालसा मेरो रूप है खास, खालसा में हो करो निवास।

पांच ककार
युद्ध की प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए उन्होंने सिखों के लिए पांच ककार अनिवार्य घोषित किये, जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझते हंै
केश : जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आये थे।
कंघा : केशों को साफ करने के लिए।
कच्छा : स्फूर्ति के लिए।
कड़ा : नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए।
कृपाण : आत्मरक्षा के लिए।


पंच प्यारे
1699 में बैसाखी के दिन एक विशाल सम्मेलन बुलाया और कड़ी परीक्षा द्वारा पांच व्यक्तियों का चयन किया गया। इनमें दयाराम लाहौर का खत्री, धर्मदास दिल्ली के पास का जाट, हिम्मतराय उड़ीसा का कहार, मोहकम चंद गुजरात का धोबी और साहब चंद महाराष्ट्र का नाई था। इस प्रकार पांच प्यारों को दीक्षित किया, उन्हें शक्ति-पुत्र कहकर इनके नामों के साथ सिंह शब्द जोड़ दिया। उन्हें अमृत पान कराया तथा अकाल पुरुष का ध्यान रखने, परिश्रम करने तथा केश, कंघा, कड़ा, कृपाण व कच्छा धारण करने की प्रेरणा दी। उसी दिन हजारों व्यक्तियों ने अमृतपान किया और भक्त मंडली शक्ति-वाहिनी में परिवर्तित हो गई। इस प्रकार समाज में उन्होंने एक ऐसी क्रान्ति का बीज रोपा, जिसमें जाति का भेद और सम्प्रदायवाद, सब कुछ मिटा दिया।

रचनाएं
गुरु गोबिन्द सिंह कवि भी थे। चंडी दीवार गुरु गोबिन्द सिंह की पंजाबी भाषा की एकमात्र रचना है। शेष सब हिंदी भाषा में हैं। इनकी मुख्य रचनाओं में चंडी चरित्र- मां चंडी (शिवा) की स्तुति, दशमग्रन्थ- गुरु जी की कृतियों का संकलन, कृष्णावतार- भागवत पुराण के दशमस्कंध पर आधारित, गोबिन्द गीत, प्रेम प्रबोध, जाप साहब, अकाल उस्तुता, चौबीस अवतार, नाममाला, विभिन्न गुरुओं, भक्तों एवं संतों की वाणियों का गुरु ग्रन्थ साहिब में संकलन।




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