सुनि लेहू अरज हमार, हे छठी मइया...


चार दिनों तक चलने वाले छठ महापर्व का हिंदू धर्म में विशेष स्थान है। अथर्ववेद में भी इस पर्व का उल्लेख है। यह ऐसा पूजा विधान है, जिसे वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाभकारी माना गया है। ऐसी मान्यता है कि सच्चे मन से की गयी इस पूजा से मानव की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। माताएं अपने बच्चों व पूरे परिवार की सुख-समृद्धि, शांति व लंबी आयु के लिए व्रत रखती हैं। आज आधुनिकता की दौड़ में छठ पर्व को लेकर कई बदलाव भी देखे जा रहे हैं। नदी, तालाबों तथा जलाशयों में जुटने वाली भारी भीड़ से बचने के लिए लोग अपने घर के आसपास ही गड्ढा बनाकर उसमें जल डालकर अर्घ्य देने लायक बना ले रहे हैं। यह भी देखा जा रहा है कि लोग स्विमिंग पुल और अपने घर की छत पर ही हौदा बनाकर अर्घ्य देते हैं।

शुद्धता का रखा जाता है विशेष ख्याल
यह व्रत काफी कठिन होता है और व्रत संबंधी छोटे-छोटे कार्य के लिए भी विशेष शुद्धता बरती जाती है। लोग इस पर्व को निष्ठा और पवित्रता से मनाते हैं उसका एक प्रमाण यह है कि छ्ठ का प्रसाद बनाने के लिए जिस गेंहू से आटा बनाया जाता है उसको सुखाते समय घर का कोई न कोई सदस्य उसकी रखवाली करता है ताकि कोई जानवर उसे जूठा न कर दे। वैज्ञानिक दृष्टि से भी सूर्य की पूजा या जल देना लाभदायक माना जाता है। भारत के अधिकतर राज्यों में लोग मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन सूर्य को जल चढ़ाते हैं, लेकिन इस पूजा का विशेष महत्व है। व्रत करने वाले मां गंगा और यमुना या किसी नदी या जलाशयों के किनारे अराधना करते हैं। इस पर्व में स्वच्छता और शुद्धता का विशेष ख्याल रखा जाता है। मान्यता है कि खरना पूजा के बाद ही घर में देवी षष्ठी (छठी मइया) का आगमन हो जाता है। इस पर्व में गीतों का खास महत्व होता है। छठ पर्व के दौरान घरों से लेकर घाटों तक कर्णप्रिय छठ गीत गूंजते रहते हैं। व्रतियां जब जलाशयों की ओर जाती हैं, तब भी वे छठ महिमा की गीत गाती हैं।

पहले दिन का चढ़ावा
पर्व में चढ़वा तो श्रद्धा के अनुसार चढ़ाया जाता है। फिर भी पर्व के पहले दिन पूजा में चढ़ावे के लिए जो सामान तैयार किया जाता है उसमें सभी प्रकार के मौसमी फल, केले की पूरी गौर (गवद), इस पर्व पर खासतौर पर बनाया जाने वाला पकवान ठेकुआ प्रमुख है। यह बाजरे के आटे और गुड़ व तिल से बने हुए पुए जैसा होता है। इसके अलावा नारियल, मूली, सुथनी, अखरोट, बादाम, नारियल, गन्ना आदि चढ़ाये जाते हैं। लाल/ पीले रंग का कपड़ा, बारह दीपक भी डाले की शोभा बढ़ाते हैं।

गुड़ से बना खीर खाने का महत्व
इस व्रत में चावल और गुड़ का खीर बनाने की परंपरा के पीछे धार्मिक और वैज्ञानिक कारण दोनों ही शामिल है। धार्मिक कारण यह है कि शास्त्रों में बताया गया है कि सूर्य की कृपा से ही फसल उत्पन्न होते हैं, इसलिए सूर्य को सबसे पहले नये फसलों का प्रसाद अर्पण करना चाहिए। छठ पर्व के समय चावल और गन्ना तैयार होकर घर आता है इसलिए गन्ने से तैयार गुड़ और नये धान के चावल का प्रसाद सूर्य देव को भेंट किया जाता है। गुड़ को चीनी से शुद्घ माना गया है। यही कारण है कि छठ पर्व में चीनी की बजाय गुड़ की खीर बनायी जाती है। जबकि वैज्ञानिक कारण यह है कि गुड़ की तासीर गर्म होती है और यह सुपाच्य होता है। इसलिए गुड़ का उपयोग औषधि बनाने में भी किया जाता है। गुड़ के सेवन से व्रती को अंदर से उर्जा और उष्मा प्राप्त होती है जिससे दो दिनों के व्रत को पूरा करने का बल मिलता है।


विदेशों में भी धूमधाम से होती है छठ पूजा
बिहार, झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी समाज का पर्व माना जाने वाला छठ अपनी लोकरंजकता और नगरीकरण के साथ गांवों से शहर और विदेशों में पलायन के चलते न सिर्फ भारत के तमाम प्रान्तों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है बल्कि मारीशस, नेपाल, त्रिनिदाद, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका, हालैंड, ब्रिटेन, कनाडा और अमेरिका जैसे देशों में भी भारतीय मूल के लोगों द्वारा अपनी छाप छोड़ रहा है- छठि मइया आइन दुअरिया। कहते हैं कि यह पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोक पर्व है जिसमें उगते सूर्य के साथ डूबते सूर्य की भी विधिवत आराधना की जाती है। यही नहीं इस पर्व में न तो कोई पुरोहिती, न कोई मठ-मंदिर, न कोई अवतारी पुरूष और न ही कोई शास्त्रीय कर्मकांड होता है।

पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है छठ 
छठ एक ऐसा पर्व है, जहां समानता और सद्भाव की अनूठी बानगी देखने को मिलती है। प्रकृति से प्रेम, सूर्य और जल की महत्ता का प्रतीक यह पर्व पर्यावरण संरक्षण का भी संदेश देता है। पर्व में जो भी फल या सामान चढ़ाये जाते हैं, जैसे केला, नीम, आम का पत्ता और डाली, बांस से बने सामान जैसे सूप, दऊरा आदि, दीया, सूथनी, आंवला आदि। से सभी चीजें किसी न किसी रूप से हमारे जीवन से जुड़े हुए है। हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण संतुलन के लिए इनके पौधों का संरक्षण जरूरी है और यहीं संदेश देता है छठ पूजा का यह महापर्व। इस पर्व में भगवान सूर्य की पूजा की जाती है। माना जाता है कि भगवान सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं, वे संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं। सर्वत्र व्याप्त हैं और रोज प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं। ऐसी भी मान्यता है कि सूर्योपासना व्रत कर जो भी मन्नतें मांगी जाती हैं, वे पूरी होती हैं और सारे कष्ट दूर होते हैं।

छठ से मन की शुचिता और पुण्य
मान्यता है कि स्वच्छता का ख्याल न रखने से छठी मइया दुखी हो जाती हैं- कोपि- कोपि बोलेंली छठि मइया, सुना महादेवा, मोरा घाटे दुबिया जनमी गइले, मकड़ी बसेढ़ लेले... गीत छठी मइया की शुद्धता को दर्शाता है। इन दिनों नमक तक का प्रयोग तक वर्जित होता है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में तीसरा दिन सबसे महत्वपूर्ण होता है। संध्या में भोर का शुक्र तारा दिखने के पहले ही निर्जला व्रत शुरू हो जाता है। दिन भर महिलाएं घरों में ठेकुआ, पूड़ी और खजूर से पकवान बनाती हैं। इस दौरान पुरूष घाटों की सजावट आदि में जुटते हैं। सूर्यास्त से दो घंटे पूर्व लोग सपरिवार घाट पर जमा हो जाते हैं। छठ पूजा के पारम्परिक गीत गाये जाते हैं और बच्चे आतिशबाजी छुड़ाते हैं। सूर्यदेव जब अस्ताचल की ओर जाते हैं तो महिलायें आधी कमर तक पानी में खड़े होकर अर्घ्य देती हैं। अर्घ्य देने के लिए सिरकी के सूप या बांस की डलिया में पकवान, मिठाइयां, मौसमी फल, कच्ची हल्दी, पानी सिंघाड़ा, सूथनी, गन्ना, नारियल इत्यादि रखकर सूर्यदेव को अर्पित किया जाता है और मन्नतें मांगी जाती है मन्नत पूरी होने पर कोसी भरना पड़ता है। जिसके लिए महिलाएं घर आकर 5 अथवा 7 गन्ना खड़ा करके उसके पास 13 दीपक जलाती हैं। निर्जला व्रत जारी रहता है और रात भर घाट पर भजन-कीर्तन चलता है। छठ पर्व के अंतिम एवं चौथे दिन सूर्योदय अर्घ्य एवं पारण में सूर्योदय के दो घंटे पहले से ही घाटों पर पूजन आरंभ हो जाता है। सूर्य की प्रथम लालिमा दिखते ही 'केलवा के पात पर उगलन सूरजमल', 'उगी न उदित उगी यही अंगन' एवं 'प्रात: दर्शन दीहिं ये छठी मइया' जैसे भजन गीतों के बीच सूर्यदेव को पुत्र, पति या ब्राह्मण द्वारा व्रती महिलाओं के हाथ से गाय के कच्चे दूध से अर्घ्य दिलाया जाता है और सूर्य देवता की बहन माता छठ को विदाई दी जाती है। माना जाता है कि छठ मइया दो दिन पहले मायके आई थीं, जिन्हें पूजन- अर्चन के बाद 'मोरे अंगना फिर अहिया ये छठी मइया' की भावना के साथ ससुराल भेज दिया जाता है। इसके बाद छठ मइया चैत माह में फिर मायके लौटती हैं। छठ मइया को ससुराल भेजने के बाद सभी लोग एक दूसरे को बधाई देते हैं और प्रसाद लेने के व्रती लोग व्रत का पारण करते हैं। व्रती की सेवा और व्रत की सामग्री का अपना अलग ही महत्व है। किसी गरीब को व्रत की सामग्री उपलब्ध कराने से व्रती के बराबर ही पुण्य मिलता है। इसी प्रकार यदि अपने घर के बगीचे में लगे फल को किसी व्रती को पूजा के लिए दिया जाता है, तो भी पुण्य मिलता है। यहां तक की व्रती की दऊरा को घाट तक पहुंचाकर, उनके कपड़े धोकर भी पुण्य कमाया जाता है। व्रत रखने वाले घरों में माता की विदाई पर सफाई नहीं की जाती क्योंकि मान्यता है कि बेटी की विदाई या कथा आदि के बाद घरों में झाड़ू नहीं लगाई जाती है।

इन चीजों से अर्घ्य देने से मिलता है अधिक पुण्य
भविष्य पुराण में बताया गया है कि इस व्रत के दिन जो भी भक्त सूर्य देव की पूजा करता है और सप्तमी के उदयगामी सूर्य को अर्घ्य अर्पित करता है उसके कई जन्मों के पाप कट जाते हैं और मृत्यु के बाद सूर्य लोक में वर्षों तक सुख एवं भोग की प्राप्ति होती है। पुराण में बताया गया है कि सूर्य को अर्घ्य देने के कुछ नियम हैं। पुण्य लाभ चाहने वालों को इन नियमों का पालन करते हुए अर्घ्य देना चाहिए। भविष्य पुराण कहता है कि जो मनुष्य भगवान सूर्य को पुष्प और फल से युक्त अर्घ्य प्रदान करता है वह सभी लोकों में पूजित होता है। इन्हें मान-सम्मान की प्राप्ति होती है। यश का लाभ मिलता है। सूर्य देव को अष्टांग अर्घ्य अत्यंत प्रिय है। जो इस प्रकार अर्घ्य देता है उसे हजार वर्ष तक सूर्य लोक में स्थान प्राप्त होता है। अष्टांग अर्घ्य में जल, दूध, कुशा का अग्र भाग, घी, दही, मधु, लाल कनेर फूल तथा लाल चंदन शामिल है। सूर्य को अर्घ्य देने के लिए आमजन मिट्टी के बरतन एवं बांस के पात्र का प्रयोग करते हैं। इनसे अर्घ्य देने पर सामान्य अर्घ्य से सौ गुना पुण्य प्राप्त होता है। मिट्टी और बांस से सौ गुणा अधिक फल ताम्र पात्र से अर्घ्य देने पर प्राप्त होता है। ताम्र के स्थान पर कमल और पलाश के पत्तों का भी प्रयोग किया जा सकता है। तांबे से लाख गुणा चांदी के पात्र से अर्घ्य देने पर पुण्य मिलता है। इसी प्रकार सोने के बर्तन से अर्घ्य देने पर करोड़ गुणा पुण्य की प्राप्ति होती है। भविष्य पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति सूर्य देव को तालपत्र का पंखा समर्पित करता है वह दस हजार वर्ष तक सूर्य लोक में रहने का अधिकारी बन जाता है।

छठ पर्व की पौराणिक मान्यता
छठ पर्व के संबंध में पौराणिक मान्यता के अनुसार छठ उत्सव एक कठिन तपस्या की तरह है। यह प्राय: महलिाओं द्वारा किया जाता है लेकिन कुछ पुरुष भी यह व्रत रखते हैं। व्रत रखने वाली महिला को परवैतिन भी कहा जाता है। चार दिनों के इस व्रत में व्रती को लगातार उपवास करना होता है। भोजन के साथ ही सुखद शैया का भी त्याग किया जाता है। छठ पर्व के लिए बनाये गये कमरे में व्रती द्वारा फर्श पर एक कंबल या चादर के सहारे ही रात बिताई जाती है। इस उत्सव में शामिल होने वाले लोग नये कपड़े पहनते हैं, पर व्रती बिना सिलाई किए कपड़े पहनते हैं। महिलाएं साड़ी और पुरुष धोती पहन कर छठ करते हैं। इस व्रत को शुरू करने के बाद छठ पर्व को सालो-साल तब तक करना होता है, जब तक कि अगली पीढ़ी की किसी विवाहिता महिला को इसके लिए तैयार न कर लिया जाए। घर में किसी की मृत्यु हो जाने पर यह पर्व नहीं मनाया जाता है। 

क्योें मनाया जाता है छठ महापर्व
सुख-समृद्धि की कामना और दूसरे मनोरथों की पूर्ति के लिए के लिए छठ पूजा की जाती है। सूर्य आराधना का यह पर्व साल में दो बार मनाया जाता है- चैत्र षष्ठी और कार्तिक षष्ठी को। चैत्र शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले छठ पर्व को चैती छठ व कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी पर मनाये जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। कई दिनों तक चलने वाला यह पर्व पवित्रता और प्रकृति से मानव के जुड़ाव का उत्सव है। इसमें उर्जा के अक्षय स्रोत सूर्य की आराधना की जाती है और वह भी सरोवरों, नदियों या पानी के अन्य स्रोतों के किनारे। पहले दिन डूबते और दूसरे दिन उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।


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