बेटियों की स्वीकार्यता बढ़ी



पिछले दिनों जमशेदपुर से एक खौफनाक खबर आयी थी कि बेटे की चाह में एक परिवार ने नौ बेटियों का कोख में ही कत्ल कर दिया गया। कई ऐसे परिवार भी हैं, जो बेटा की चाह में बेटियों को जन्म देते रहते हैं और उसके बाद उन्हें उनके लालन पालन में आने वाले दिक्कत के कारण कोसते रहते हैं। आये दिन ऐसी कई और खबरें अखबारों और टीवी में आती रहती है। लेकिन ऐसे कई परिवार हैं जो बेटी के जन्म के बाद ही परिवार नियोजन अपना लिया। यानी इन दंपतियों ने बेटियों में ही बेटे का मोल समझा। बेटे-बेटी का भेद मिटाने के लिए जिलेवासियों में जागृति आ रही है। यही वजह है कि अब लोग बेटों का मोह त्याग केवल बेटियां होने के बावजूद नसबंदी करा रहे हैं। ताकि परिवार तो समिति रहे ही साथ में वे बेटियों की परवरिश में भी कोई कमी नहीं रहे। कई निसंतान दंपति अब बेटी को गोद लेने के इच्छुक हैं। साल 2015 में भारत में लगभग 59 फीसदी दंपतियों ने बच्चियों को गोद लेने के लिए आवेदन डाला जबकि बेटों के लिए सिर्फ 41 फीसदी। यह आंकड़ा  बताता है कि बेटियों के लिए स्वीकार्यता बढ़ रही है। जो विभेद सालों से समाज में रहा है अब लोग उसे खत्म करने के लिए आगे आ रहे हैं।

बेटियां रखती है मां-बाप का ज्यादा ख्याल
बिहार, हरियाणा और उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों में जहां लिंगानुपात में बड़ा अंतर है वहां भी अभिभावक बेटियों को गोद लेने की तरफ आकर्षित हो रहे हैं। इस बारे में विशेषज्ञों का कहना है कि 'बहुत सारे अभिभावक बच्चियों को इसलिए भी गोद लेना चाहते हैं क्योंकि यह साफ तौर पर जाहिर है कि बच्चियां माता-पिता के प्रति ज्यादा प्रेम रखती हैं और लंबे समय तक उनसे जुड़ाव रखती हैं।'
 हालांकि  लड़कों की उपलब्धता कम होना भी इसकी एक वजह है। गोद लिये जाने वाले बच्चों के आंकडों को देखें तो पता चलता है कि अभिभावक अब बेटे के लिए लंबा इंतजार नहीं करना चाहते हैं और वे बेटियों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बना रहे हैं। बेटी को गोद लेने वाली सर्कुलर रोड रांची की ज्योत्स्ना राय कहती हैं, 'मैं मानती हूं कि हर परिवार में एक बेटी होना चाहिए। उससे घर पूरा होता है। घर में खुशहाली आती है। समाज की सोच भी उन्नत होती है। जब हम किसी बेटी के सिर पर हाथ रखते हैं तो हम कहीं न कहीं समाज को बेहतर बना रहे होते हैं।'
 

गोद लिये जाने वाले बच्चों में दस फीसदी की बढ़ोतरी
भारत में पिछले दस सालों में गोद लिये जाने वाले बच्चों का प्रतिशत बढ़ा है और अब बेटियों को अपनाने की नयी सोच भी दिखने लगी है। वर्ष 2004 में जहां 2, 728 बच्चे गोद लिये गये थे। वहीं 2014 -15 में 4,353 बच्चे गोद लिये गये। इनमें बेटियों की संख्या अच्छी खासी है। अच्छी खबर यह भी है कि राजस्थान, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में लोग बच्चियों को गोद ले रहे हैं। इन राज्यों में बेटियों को अपनाने वाले परिवारों की अच्छी खासी संख्या है। बच्ची गोद लेने वाली खुशबू बताती हैं कि 'हमने जब बच्चा गोद लेने के लिए 2013 में आवेदन किया तो हमने उसमें बच्चे को लेकर अपनी कोई खास पसंद नहीं जाहिर की। हमने लड़का या लड़की वाले विकल्प में कुछ भी नहीं लिखा। हमारा सोचना था कि जिस तरह लड़के या लड़की का जन्म ईश्वर के हाथ है उसी तरह हमारे जीवन में कौन आये यह फैसला भी ईश्वर पर ही छोड़ देना चाहिए।' इस विषय के विशेषज्ञों का मानना है कि बेटियों को लेकर लोगों की मानसिकता में बदलाव आया है। बराबरी के हक के बाद जागरूकता भी बढ़ी है। ये शुभ संकेत हैं लेकिन, बेटियों की संख्या देखते हुए अभी और ज्यादा सुधार की गुंजाइश है। 
 
आवेदक ज्यादा, बच्चे कम
भारत दुनिया के उन देशों में शुमार है, जहां अनाथ और खोऐ हुए बच्चों की संख्या काफी ज्यादा है। ऐसे में साल 2012 और 2013 में गोद लिए जाने वाले बच्चों की संख्या में गिरावट दर्ज होना चिंताजनक स्थिति थी। बच्चों के लिए कार्य करने वाली संस्थाओं और एनजीओ रिपोर्ट्स की मानें तो इस समय पूरे देश में लगभग 50000 अनाथ बच्चों को आसरे की जरूरत है। केंद्रीय दत्तक ग्रहण संसाधन प्राधिकरण (सीएआरए) के ताजा आंकड़ों के अनुसार 2012 में कुल 1410 बच्चों को गोद लिया गया था। इसके बाद आंकड़ों में आई गिरावट 946 तक पहुंच गयी थी। यह अब तक कि सबसे कम संख्या थी। लेकिन अब इसमें सुधार हो चुकी है। पिछले साल लगभग साढ़े चार हजार बच्चों को गोद लिया गया। सीएआरए की रिपोर्ट कहती है कि इस समय देश में ऐसे बच्चे जिन्हें गोद दिया जा सकता है, उनकी संख्या 1200 है, जबकि गोद लेने के इच्छुक माता-पिता की संख्या 10000 है। इसमें से 9000 माता-पिता भारतीय हैं जबकि शेष एनआरआई तथा विदेशी हैं।
 

आसान प्रक्रिया ने बढ़ाया आवेदक
केंद्र सरकार ने गोद लेने की प्रक्रिया को सरल तथा लालफीताशाही से मुक्त करने की दिशा में काफी कार्य किया है। लोगों को प्रेरित करते के लिए प्रचार किया भी किया गया, जिससे गोद लेने वालों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। अब सीएआरए चाहती है कि राज्यों के डेटाबेस को 100 प्रतिशत ऑनलाइन किया जाये, ताकि ज्यादा से ज्यादा बच्चों को गोद दिया जा सके। अभी तक पूरे देश के 95 फीसदी डेटाबेस को ऑनलाइन किया जा चुका है। उल्लेखनीय है कि केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी कह चुकी हैं कि देश में बच्चों के गोद लिये जाने का आंकड़ा काफी कम है। वो चाहती है कि इस संख्या को बढ़ाकर कम से कम 15000 बच्चे प्रतिवर्ष तक पहुंचाया जाये।
 
समाज को संदेश
बेटियों को गोद लेने की वजह यह भी है कि लोग समाज में एक खास तरह का संदेश छोड़ना चाहते हैं। कुछ दंपति तो यह भी चाहते हैं कि वे बेटी को ही गोद लें और उसमें भी वे चाहते हैं कि बच्ची का रंग बहुत ज्यादा गोरा नहीं होना चाहिए। इस तरह ये युगल बेटे और गोरे रंग की चाह के दुष्चक्र को तोड़ रहे हैं। वे हमारी दुनिया को थोड़ा और भला और बेटियों के लिए सुंदर बनाने का काम कर रहे हैं। समाज को यह संदेश देना चाहते हैं कि बेटियां ही जीवन को खास बनाती हैं।
 

बिहार के इस गांव ने बेटी को लक्ष्मी माना
हार के भागलपुर जिले से 20 किमी की दूरी पर धरहरा गांव है। इस गांव में रहने वाले बेटी के जन्म पर करीब 10 आम के पेड़ लगाते हैं। यहां बेटी को लक्ष्मी मानकर उसका दुनिया में स्वागत किया जाता है। इस गांव के प्रधान प्रमोद सिंह ने अपनी बेटी के जन्म के समय जो 10 आम के वृक्ष लगाये थे अब उन पेड़ों और बेटी की उम्र अब 12 वर्ष है। बेटी की फीस का खर्च इन पेड़ों पर होने वाले फल बेचकर निकाला जाता है। बच्ची की शिक्षा इस तरह कतई बोझ नहीं रही। इसी गांव में शत्रुघ्न सिंह नाम के व्यक्ति ने तो अपनी बेटी, नाती-पोती और गांव की अन्य बेटियों के लिए करीब 600 पेड़ लगाये हैं। इस गांव में लोग अब बेटियों को बोझ नहीं समझते हैं बल्कि उनके जन्म के साथ खुद भी आत्मनिर्भर होते हैं।
 
बेटी के जन्म पर लगाते हैं 111 पौधे
राजस्थान के पिपलांत्री गांव में बेटी के जन्म को अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। यहां बेटी के जन्म पर 111 पौधे लगाने की परंपरा है। यह गांव इस मायने में भी अद्भुत है कि बेटी के जन्म पर गांव वाले मिलकर 21 हजार रुपये इकट्ठा करते हैं और बच्ची के माता-पिता से 10 हजार रुपये लेकर 31 हजार की इस पूरी राशि का 20 वर्ष के लिए फिक्स्ड डिपॉजिट में लगा देते हैं। इसके अलावा माता-पिता एक एफिडेविट करते हैं कि वे अपनी बेटी की शिक्षा का पूरा ख्याल रखेंगे। इस कानूनी दस्तावेज में इस बात का भी उल्लेख रहता है कि माता-पिता बेटी का विवाह 18 वर्ष की उम्र पूरी होने के बाद ही करेंगे और इतने वर्षों तक सभी पौधों की देखभाल का जिक्र भी इस दस्तावेज में रहता है। गांव वाले न केवल पौधे लगाते हैं बल्कि पौधों के पेड़ में तब्दील होने तक उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भी उठाते हैं। यहां लगाये गये फलदार वृक्ष और एलोविरा के पौधे अब गांव वालों की आजीविका का स्रोत भी बन गये हैं। इस अनोखी परंपरा की शुरुआत गांव के श्यामा सुंदर पालीवाल ने की थी। उनकी बेटी बहुत ही कम उम्र में दुनिया से विदा हो गयी थी और उसकी स्मृति में उन्होंने पौधारोपण किया और एक नयी परंपरा के लिए जगह बनायी। इस गांव की एक खूबी यह भी है कि यहां पिछले 7-8 वर्षों से एक भी पुलिस केस नहीं हुआ है।
 
उत्तर प्रदेश में 'बेटियों को उड़ान के सपने'
उत्तर प्रदेश के वीरेंद्र सैम सिंह उन बेटियों के लिए काम कर रहे हैं जिन्हें परिवार बोझ समझते हैं। वीरेंद्र ने अपनी संस्था 'परदादा परदादी एजुकेशनल सोसायटी' के जरिए उत्तर प्रदेश के बुलंद शहर में बेटियों को उड़ान के सपने दिये। जब उन्होंने काम शुरू किया तो पाया कि ज्यादातर परिवार बेटियों को बोझ समझते हैं और उनकी शिक्षा पर खर्च नहीं करते हैं और न ही उन्हें स्कूल भेजते हैं। वीरेंद्र ने बच्चियों को स्कूल आने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने हर दिन स्कूल आने पर बच्चियों को 10 रुपये देना शुरू किया। कक्षा छह तक की बच्चियों को उन्होंने इस तरह प्रोत्साहित किया। यह रुपया सीधा बच्चियों के बैंक अकाउंट में जमा होता है, जिसका उपयोग वे 18 वर्ष की होने पर कर पायेंगी। इस आधार पर जब बच्चियां बड़ी होती हैं तो उनके पास 30 हजार तक की रकम होती है। जिन बच्चियों की स्कूल में 70 प्रतिशत से अधिक उपस्थिति होती थी संस्था उनके यहां शौचालय भी बनाती है।
 
क्या कहता है पीसीपीएनडीटी एक्ट 1994
इस एक्ट का पूरा नाम 'पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम' 1994 (पीसीपीएनडीटी एक्ट) है।  भारत में कन्या भ्रूण हत्या व गिरते लिंगानुपात को रोकने के लिए संसद द्वारा पारित एक संघीय कानून है। इस एक्ट से प्रसव पूर्व लिंग निर्धारण पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। एक्ट के तहत जन्म से पहले शिशु के लिंग की जांच पर पाबंदी है। अल्ट्रासाउंड या अल्ट्रासोनोग्राफी कराने वाले पति-पत्नी, करने वाले डॉक्टर व लैब कर्मी को तीन से पांच वर्षो की सजा और दस से बीस हजार जुर्माने की सजा का प्रावधान है।
 
कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ बना है माहौल
बीते कुछ सालों में देश भर में कन्या भू्रण हत्या के खिलाफ जबर्दस्त माहौल बना है। इस बात पर जोर दिया जा रहा है कि बेटियों को इस संसार में आने का हक है और उनकी गर्भ में ही हत्या करने से बड़ा कोई पाप नहीं है। लेकिन जानकार यह समझ नहीं पा रहे हैं कि हाखिर  मेनका गांधी ने भ्रूण परीक्षण को जायज ठहराने की बात क्यों की है। वे इस बयान के सख्त खिलाफ हैं। एक तरफ केन्द्र व राज्य सरकारें और सभी राजनीतिक दलों की यह कोशिश है कि वे भू्रण परीक्षण और कन्या भ्रूण को गर्भ में ही समाप्त करने के प्रयासों को सख्ती से रोकें। दूसरी तरफ मंत्री के ऐसे बयान बेटियों को बचाने के प्रयासों को धक्का पहुंचाने वाला है।
 
मुश्किलें अभी और भी हैं...
भारत में लिंगानुपात के आंकडे़ बताते हैं कि स्त्री और पुरुष की असमानता घट रही है। 1991 में जहां प्रति 1000 पुरुषों पर 927 स्त्रियां थीं। वहीं 2011 की में यह आंकड़ा प्रति 1000 पुरुषों पर 940 पहुंच गया। इससे तो यही लगता है कि बेटे और बेटी के जन्म के बीच भेद मिट रहा है लेकिन 1991 में जहां शिशु लिंगानुपात 1000 से 945 था तो 2011 में यह प्रति 1000 बेटों पर 914 बेटियों तक सिमट गया। भारत में अब भ्रूण हत्या से ज्यादा चिंता शिशु कन्या की हत्या का है। भारत में जन्म से पहले संतान का लिंग पता करने का निषेध घोषित करने वाला कानून 1994 में पास हुआ था, लेकिन आज भी इसके प्रभाव को लेकर पर्याप्त बहस हो रही है। आज भी जिला स्तर पर काम करने वाले अधिकारी इस कानून से पूरी तरह अवगत नहीं हैं और कई बार परिवार और डॉक्टर मिलकर इस कानून को मजाक बना देते हैं। स्वास्थ्य विभाग द्वारा शायद ही अल्ट्रासाउंड क्लिनिक का नियमित रूप से दौरा किया जाता हो। इससे लिंगानुपात तेजी से गड़बड़ा रहा है।
 
बाल विवाह बेटियों के लिए बड़ा बाधक
बेटियों की राह की सबसे बड़ी बाधा बाल विवाह भी है। हालांकि 2006 बाल विवाह निषेध अधिनियम के तहत 18 से कम उम्र की लड़की और 21 से कम उम्र के लड़के का विवाह गैरकानूनी है और इसमें जेल और 2 लाख रुपये तक के जुर्माने का भी प्रावधान है, मगर 2014 के संयुक्त राष्ट्र के आंकडे़ बताते हैं कि भारत में 47 प्रतिशत लड़कियां 18 वर्ष की उम्र के पहले ही ब्याह दी जाती है। ग्रामीण इलाकों में यह कुप्रथा कायम है।

झारखंड में लिंगानुपात
झारखंड लिंगानुपात सबसे कम धनबाद में है। यह सभी जिलों में सबसे निचले पायदान पर पहुंच गया है। महिलाओं की संख्या में काफी कमी आयी है। इसका एक बड़ा कारण कन्या भ्रूण हत्या है। यहां गौर करने वाली बात यह है कि धनबाद शिक्षा के क्षेत्र में काफी आगे हैं। यहां शिक्षा प्रतिशत अन्य जिलों की तुलना में काफी आगे हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि यहां शिशु भु्रण हत्या जैसे संगीन मामले ज्यादा होते हैं। जानकार बताते हैं कि यहां अशिक्षित लोगों की तुलना में पढ़े-लिखे और गांव की तुलना में शहरी लोग ज्यादा शिशु लिंग जांच कराते हैं। यहां दो-ढाई से लेकर सात महीने तक का गर्भपात करा दिया जाता है। जनगणना (2011) आंकड़े पर गौर करें तो धनबाद में एक हजार पुरुषों की तुलना में मात्र 908 महिलाएं ही बची हैं। जबकि वर्ष 0-6 वर्ष की बच्चों की बात करें तो यहां मात्र 917 बच्चियां ही हैं। वहीं पड़ोसी जिला बोकारो में 912 महिलाएं व 916 बच्चियां, गिरिडीह में 943 महिलाएं व 943 बच्चियां ही एक हजार पुरुष व बच्चे की रेशियो में हैं। पश्चिम सिंहभूम लिस्ट में सबसे ऊपर हैं। यहां एक हजार पुरुषों की तुलना में 1004 महिलाएं हैं। वहीं सिमडेगा में एक हजार बच्चों में एक हजार बच्चियां हैं।
बेटियों की स्वीकार्यता बढ़ी बेटियों की स्वीकार्यता बढ़ी Reviewed by saurabh swikrit on 4:12 am Rating: 5

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