बोरा छाप बच्चें भी होते हैं कुर्सी में बैठने वालों से आगे
सौरभ स्वीकृत
निजी स्कूलों के नाम सुनते ही हमारे जेहन में एक ऐसी तस्वीर बनती है जिसमें बच्चों के अच्छे भविष्य की तस्वीर बनती दिखाई देती है। अंग्रेजी के बढ़ते महत्व को देखते हुए इन स्कूलों के अलावा लोग कुछ और नहीं देखते हैं। लेकिन क्या आप कभी यह सोच सकते हैं कि सरकारी स्कूल के बच्चे कभी निजी स्कूलों के बच्चों से आगे निकल सकते हैं? शयद नहीं। लेकिन पूर्ण रूप से सत्य नहीं है। पहले मैं भी यही सोचता था लेकिन जब मेरी आंखो के सामने एक ऐसी घटना घटी जिसने मेरे दिलो-दिमाग को एक पल के लिए झकझोर के रख दिया और यह मानने पर मजबूर कर दिया कि सरकारी स्कूल के बच्चे भी कई जगहों पर पब्लिक स्कूल के बच्चों को मात दे सकते हैं।
हुआ यूं कि मै ट्रेन में सफर कर रहा था। मेरे सामने वाली सीट पर दो परिवार के लोग बैठे थे। दोनो परिवार का रहन-सहन, कल्चर, परिवेश बिलकुल अलग था। थोड़े ही समय में दोनो परिवार के बच्चे आपस में घुल मिल गये थे। वे लोग आपस में बात करते हुए अपनी अपनी बात एक दूसरे से शेयर करते हुए बहुत खुश थे। तभी एक किताब बेचने वाला हमारे डब्बे में आया। वह कहानियों की किताब बेच रहा था। निजी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे ने तीन किताबें खरीदी। बच्चे ने बेचने वाले से पूछा कितना हुआ? उसने जवाब दिया पच्हतर रूपये। बच्चे को समझ में कुछ नहीं आया। उसने अपने पापा से पूछा पचहत्तर रुपये कितने होते हैं। पिता कुछ जवाब देते उससे पहले ही सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे ने जवाब दिया- सेवेंटी फाइव। इंग्लिश वाले बच्चे को किताब की किमत समझ में आ गयी। उसने अपने पिता से सौ के नोट लेकर विक्रता को दिया। उसने बच्चे को पच्चीस रुपये वापस किये। बच्चे ने कीमत बताने वाले बच्चे से पूछा ये तो टेवेंटी फाइव रुपया हुआ। तुम इसे कितना कहोगे? हिन्दी वाले बच्चे ने कहा- पच्चीस रुपया, लेकिन यह हम नहीं कहते है यह तो हिन्दी में बोलने वाले सभी लोग कहते हैं । हिन्दी तो सब कोई बोलता है। हमारी मिस कहती है कि हिन्दी हमारे देश की भाषा है इसे जरूर जानना चाहिए। इंग्लिश स्कूल वाला बच्चा सिर हिल्लाकर उसकी हां में हां मिला रहा था और गंभीरता से हिंदी वाले बच्चे को देख रहा था। पहले वाला बच्चा बोला लेकिन हमारी मिस तो हमें अंग्रजी में बात करने को कहती है। हिन्दी बोलने पर हमें डांटती है। दूसरे बच्चे ने कहा लेकिन हमारी मिस ऐसी नही है, वो तो हमें दोनो भाषा बोलने के लिए कहती है। आगे वह कहता है कि अगर तुम हिन्दी नहीं जानोगे तो कोई भी तुम्हें ठग सकता है। जैसे की अभी तुम्हे पचहत्तर का मतलब समझ में नहीं आ रहा था।
दोनो बच्चों के परिवार के साथ मैं भी उन्हे बड़े ध्यान से देख रहा था और उनकी बातों को सुन रहा था। तभी मेरे दिमाग में यह बात आयी कि आखिर यह एक ऐसा मौका है जहां एक सरकारी स्कूल के बच्चें ने प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे को मात दे दी। पहले वाले बच्चे के पिता ने दूसरे बच्चे को बुलाया और उसका नाम पूछा। उसने बताया- राजू। पिता ने उस बच्चे को कहा मन लागाकर पढ़ाई करना और मां-बाप का नाम रौशन करना। उसके लिए 20 रूपये का बादाम भी खरीद दिया।
मैं चुपचाप ये सब देख रहा था। मुझे यह देखकर बड़ी खुशी हो रही थी । लोग हमेशा यह सोचते हैं कि निजी स्कूल वाले बच्चों के सामने सरकारी स्कूल के बच्चों कमजोर होते हैं। ये कभी भी उनसे प्रतियोगिता में नहीं जीत सकते। लेकिन अगर आज यह धटना जो लोग भी देखते यह जरूर मान लेते जो मै मान चुका था। मुझे यह खुशी हुई कि आज भी जिस सरकारी स्कूलों को लोग ऐसी निगाह से देखते हैं, वहां पढ़ने वाले बच्चे कई मायने में आगे हैं। कई असुविधाओं के बावजूद यहां के बच्चे एक से बढ़कर एक कारनामे कर रहे हैं। बोरा छाप स्कूल के कहे जाने वाले बच्चे कुर्सी पर बैठने वाले बच्चों से आगे हैं। अगर इन्हें और सुविधा दी जाये तो शायद इनकी कहानी ही कुछ और होगी। शयद इन बच्चों के प्रतिभा एक मिसाल पेश करेगी।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. ए पी जे अब्दुल कलाम ने भी अपनी पढ़ाई एक बोरा छाप स्कूल से ही की रिी लेकिन उनके अंदर की प्रतिभा किसी के परिचय का मोहताज नहीं है। उन्होने न सिर्फ अंग्रेजी में बल्कि विज्ञान के क्षेत्र में भी कई ऐसे कार्य किए जो दुनिया के सामने एक मिसाल है। ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने है, जो सरकारी स्कूलों के बच्चों के अंदर की प्रतिभा को दर्शाता है।
हुआ यूं कि मै ट्रेन में सफर कर रहा था। मेरे सामने वाली सीट पर दो परिवार के लोग बैठे थे। दोनो परिवार का रहन-सहन, कल्चर, परिवेश बिलकुल अलग था। थोड़े ही समय में दोनो परिवार के बच्चे आपस में घुल मिल गये थे। वे लोग आपस में बात करते हुए अपनी अपनी बात एक दूसरे से शेयर करते हुए बहुत खुश थे। तभी एक किताब बेचने वाला हमारे डब्बे में आया। वह कहानियों की किताब बेच रहा था। निजी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे ने तीन किताबें खरीदी। बच्चे ने बेचने वाले से पूछा कितना हुआ? उसने जवाब दिया पच्हतर रूपये। बच्चे को समझ में कुछ नहीं आया। उसने अपने पापा से पूछा पचहत्तर रुपये कितने होते हैं। पिता कुछ जवाब देते उससे पहले ही सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे ने जवाब दिया- सेवेंटी फाइव। इंग्लिश वाले बच्चे को किताब की किमत समझ में आ गयी। उसने अपने पिता से सौ के नोट लेकर विक्रता को दिया। उसने बच्चे को पच्चीस रुपये वापस किये। बच्चे ने कीमत बताने वाले बच्चे से पूछा ये तो टेवेंटी फाइव रुपया हुआ। तुम इसे कितना कहोगे? हिन्दी वाले बच्चे ने कहा- पच्चीस रुपया, लेकिन यह हम नहीं कहते है यह तो हिन्दी में बोलने वाले सभी लोग कहते हैं । हिन्दी तो सब कोई बोलता है। हमारी मिस कहती है कि हिन्दी हमारे देश की भाषा है इसे जरूर जानना चाहिए। इंग्लिश स्कूल वाला बच्चा सिर हिल्लाकर उसकी हां में हां मिला रहा था और गंभीरता से हिंदी वाले बच्चे को देख रहा था। पहले वाला बच्चा बोला लेकिन हमारी मिस तो हमें अंग्रजी में बात करने को कहती है। हिन्दी बोलने पर हमें डांटती है। दूसरे बच्चे ने कहा लेकिन हमारी मिस ऐसी नही है, वो तो हमें दोनो भाषा बोलने के लिए कहती है। आगे वह कहता है कि अगर तुम हिन्दी नहीं जानोगे तो कोई भी तुम्हें ठग सकता है। जैसे की अभी तुम्हे पचहत्तर का मतलब समझ में नहीं आ रहा था।
दोनो बच्चों के परिवार के साथ मैं भी उन्हे बड़े ध्यान से देख रहा था और उनकी बातों को सुन रहा था। तभी मेरे दिमाग में यह बात आयी कि आखिर यह एक ऐसा मौका है जहां एक सरकारी स्कूल के बच्चें ने प्राइवेट स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे को मात दे दी। पहले वाले बच्चे के पिता ने दूसरे बच्चे को बुलाया और उसका नाम पूछा। उसने बताया- राजू। पिता ने उस बच्चे को कहा मन लागाकर पढ़ाई करना और मां-बाप का नाम रौशन करना। उसके लिए 20 रूपये का बादाम भी खरीद दिया।
मैं चुपचाप ये सब देख रहा था। मुझे यह देखकर बड़ी खुशी हो रही थी । लोग हमेशा यह सोचते हैं कि निजी स्कूल वाले बच्चों के सामने सरकारी स्कूल के बच्चों कमजोर होते हैं। ये कभी भी उनसे प्रतियोगिता में नहीं जीत सकते। लेकिन अगर आज यह धटना जो लोग भी देखते यह जरूर मान लेते जो मै मान चुका था। मुझे यह खुशी हुई कि आज भी जिस सरकारी स्कूलों को लोग ऐसी निगाह से देखते हैं, वहां पढ़ने वाले बच्चे कई मायने में आगे हैं। कई असुविधाओं के बावजूद यहां के बच्चे एक से बढ़कर एक कारनामे कर रहे हैं। बोरा छाप स्कूल के कहे जाने वाले बच्चे कुर्सी पर बैठने वाले बच्चों से आगे हैं। अगर इन्हें और सुविधा दी जाये तो शायद इनकी कहानी ही कुछ और होगी। शयद इन बच्चों के प्रतिभा एक मिसाल पेश करेगी।
भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. ए पी जे अब्दुल कलाम ने भी अपनी पढ़ाई एक बोरा छाप स्कूल से ही की रिी लेकिन उनके अंदर की प्रतिभा किसी के परिचय का मोहताज नहीं है। उन्होने न सिर्फ अंग्रेजी में बल्कि विज्ञान के क्षेत्र में भी कई ऐसे कार्य किए जो दुनिया के सामने एक मिसाल है। ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने है, जो सरकारी स्कूलों के बच्चों के अंदर की प्रतिभा को दर्शाता है।
बोरा छाप बच्चें भी होते हैं कुर्सी में बैठने वालों से आगे
Reviewed by saurabh swikrit
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9:16 am
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