किस बात पर गर्व करके आजादी का जश्न मनायें!


केशरिया है त्याग हमारा, सादा है सच्चाई, हरा रंग है हरी हमारी धरती की अंगड़ाई। यह पंक्ति आजादी के प्रतीक तिरंगे के लिए एकदम फिट बैठता है।  यह हमारे देश के क्रांतिकारियों के बलिदान से लेकर किसानों की मेंहनत को बखूबी सार्थक करता है। लेकिन यह हमारी  बिड़बना है कि आजादी के इतने सालों बाद भी आम आदमी के मन में यह सवाल उठता है कि उनके लिए आजादी के मायने क्या हैं? एक तरफ सरकार आम लोगों को भोजन और रोजगार की गांरांटी दे रही है तो दूसरी तरफ देश के कई इलाकों में अब भी बहुसंख्य जनता भुखमरी की शिकार है। देश के किसान आत्महत्या करने को मजबूर है। हर तरफ लूट खसोट मची है, घोटालों और भ्रष्टाचारों से देश की जनता त्रस्त हो चुकी है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या हमारे देश के वीर शहीदों ने इसी भारत का सपना देखा था? बिल्कुल नहीं...। देश के अमर सेनानियों ने जिस भारत की कल्पना की थी वो आत्मनिर्भरता था। वह समानता और भाईचारे पर आधरिता था।

हमेशा की तरह हम इस साल भी स्वतंत्रता दिवस बड़ी तामझाम के साथ मनायेंगे। जाहिर सी बात है, भव्य कार्यक्रम होंगे नयी-नयी घोषणाएं होंगी और देशवासियों के सामने फिर से कई तरह के बड़े-बड़े वायदे होगें। उपलब्धियों की वाहवाही होगी और आतंकवादियों, चरमपंथियों को फिर एक कड़ी चेतावनी दी जायेगी। फिर जैसे ही आयोजन खत्म होगा, सबकुछ पहले जैसा हो जायेगा। तमाम वादे भुला दिए जायेंगे और सबकुछ बेखौफ चलता रहेगा। यही वजह है कि आजादी की 67वीं वर्षगांठ के हर्षोल्लास के माहौल में भी मन में पूरी तरह खुशी महसूस नहीं होती। एक खिन्नता रहती है, लगता है जैसे आज भी कुछ अधूरा है। कहने को तो हम आजाद हो गए हैं, लेकिन दिल पर हाथ रखकर ये पूछा जाये तो पता चलता है कि हम सही मायने में आजाद नहीं हो पाये हैं। पहले अंग्रेजों के हाथो गुलाम थे आज अपनों के हाथों गुलाम हैं।

आजाद देश उसे कहते हैं, जहां खुली साफ हवा में अपनी मर्जी से सांस ले सके, कुदरत के दिए हुए हर तोहफे का अपनी हद में रहकर इस्तेमाल कर सके, जहां अधिकारों और कर्तव्यों का बराबरी से निर्वाह किया जाए। लेकिन यहां तो कहानी ही उलटा है। आम आदमी के लिए यहां न पीने का साफ पानी है न खुली साफ हवा, न खाने को भोजन है, न सोने को घर, कर्तव्यों पर अधिकार हावी है, फिर भी हम आजाद हैं। याद होगा नक्सलवाड़ी आंदोलन का वह दिन। यह कहने की जरूरत नहीं कि 1969 में नक्सलवाड़ी का विद्रोह आम जनता द्वारा आजादी को लेकर पाले गए उसके सपनों के टूटने की पहली प्रतिक्रिया थी। हमारा शासक वर्ग जिस तरह से दिन-प्रतिदिन आम आदमी पर काले कानून लाद रहा है, ठीक उसी तरह पीडि़त और उपेक्षित समुदाय अपने-अपने तरीके से संघर्ष कर रहा है। जिसे देश के कई भागों में देखा जा सकता है। कहीं आरक्षण की मांग हो रही है तो कहीं आरक्षण के अंदर आरक्षण की, कहीं अलग राज्य की मांग की जा रही है रही है तो कहीं दूसरे अधिकारों की। देश का कोई भी इलाका इस तरह की मागों से अछूता नहीं है। बात यहीं तक सीमित नहीं है। आजादी के बाद कई चीजें आम आदमी से दूर हो गयी, जो उनके मूल अधिकारों में शामिल होनी चाहिए थी। आजादी के इतने साल बाद भी देश की 76 फीसदी जनता 20 रुपये से कम पर गुजारा करने को मजबूर है। हम आज भी करोड़ों लोगों को उनके सिर पर एक अदद छत तक मुहैया नहीं करा पाये हैं।

प्रशासन और आम आदमी के बीच एक खतरनका स्तर की गैपिंग हो चुकी है जिससे हर तरफ भ्रष्टाचार का दानव विकराल रूप धारण कर रहा है। लोग आज भी भूख से मर रहे हैं। जनता कमरतोड़ महंगाई से पिस रही है। लेकिन सरकार के पास इससे निपटने के लिए कोई योजना नहीं है। साफ है कि दिनोंदिन विकास की पटरी पर चढ़ते भारतवर्ष में आम जनता अपनी हालत पर आंसू बहाने को मजबूर है।

दरअसल आजादी के इतने सालों तक हमारे शासक वर्ग ने आज तक जनता से सिर्फ झूठे वादे ही किए और झूठी कसमें खाईं है। समस्या के समाधान के नाम पर एक के बाद एक नयी समस्या खड़ी की गयी। साल दर साल आम आदमी हाशिये पर खड़ा होता गया। आज आम आदमी के पास आजादी का जश्न मनाने को कुछ भी नहीं बचा है। वह किस चीज पर गर्व करके आजादी का जश्न मनाये?


वास्तव में किसी भी देश की जनता की खुशहाली उस देश की प्रगति एवं संपन्नता का एक मात्र सूचकांक है। लेकिन इन सबसे बेखबर हमारा शासक वर्ग खुद के बनाए विकास के आंकड़ों से वाहवाही लूट रहा है। देश के जितने भी नेता है वो अपनी तरिके से विकास के पैमाने को मापते हैं। सभी कहते हैं कि उनके राज्य की स्थिति बेहतर है। ऐसे में यहां एक बड़ा सवाल खड़ा होता है कि अगर सभी की स्थिति बेहतर है तो फिर गरीब कौन है। पूरे देश में अपराधों का ग्राफ क्यों बढ़ता जा रहा है। यह कुछ ऐसे सवाल है जो हमारे देश के नेताओं को आड़े हाथ लेता है। आज जरूरत है अत्मंथन करने की। समाज के उस तबके के बारे में सोचने की जो सचमुछ में पिछड़ा है। पूरे देश के लोगों के पेट को भरने वाले किसानों के बारे में सोचने की, जिनके कंधों में देश का भविष्य है वैसे युवाओं के भाविष्य को सुनिश्चित करने की, भूख, गरीबी, कुपोषण, असहाय, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी चुनौतियों के लिए ठोस नीति बनाने की। जब तक ऐसे तमाम पहलुओं पर विचार और इनके विकास के ठोस कदम नहीं उठाये जायेंगे, हम सही मायने में आजाद नहीं हो सकते है और न ही क्रांतिकारियों के सपनो का भारत बना सकते हैं। 

                                                                                                                                   सौरभ स्वीकृत
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