मां, जग तेरे चरणों में आयो




देवी दुर्गा का उदय
हमारी संस्कृति में दुर्गा अनेक शक्तियों के संचय की प्रतीक हैं। शक्ति की देवी दुर्गा के उदय की कथा हमें यह बताती है कि सभी प्रकार की शक्तियां एकरूप होकर किसी भी विनाशकारी ताकत को मिटा सकती हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय महिषासुर नामक राक्षस ने स्वर्ग और धरा पर अपना आतंक फैला रखा था। उस आतंक को समाप्त करने के लिए सभी देवताओं ने एक-एक कर उससे युद्ध किया,  लेकिन भैसे का रूप धारण किए महिषासुर ने सबको परास्त कर दिया। उसे वरदान प्राप्त था कि उसे कोई पुरुष नहीं मार सकता। पूरी तरह से हताश देवतागण ब्रह्मा, विष्णु  शिव की शरण में पहुंचे। तब शिव ने अपनी क्रोधग्नि से एक दैवीय शक्ति को प्रकट किया जो स्त्री थी। इस शक्ति को सभी देवताओं ने अपने अस्त्र प्रदान किए जिससे वह महाशक्ति बन गयी। सिंह पर सवार हो देवी ने महिषासुर को युद्ध के लिए ललकारा। क्रोध भरी गर्जना के साथ देवी ने दस भुजाओं में धारण दीप्तिमान अस्त्रों से उस दानव पर प्रहार किर दिया। घनघोर युद्ध के उपरांत महिषासुर का अंत हुआ। इस तरह पाप पर पुण्य की विजय हुई। देवताओं ने शक्ति के इस स्वरूप को दुर्गा कहा और उनकी पूजा होने लगी।

इतिहास पूजा का

दुर्गा पूजा के इतिहास देखें तो पूजा की वर्तमान परपंरा करीब चार सदी पुरानी नजर आती है। सोलहवीं शताब्दी के अंत में बंगाल के ताहिरपुर में महाराज कंशनारायण दुर्गा पूजा का भव्य अनुष्ठान किया था। घर में बड़े से ठाकुर दालान को सजाकर उसमें दुर्गा की प्रतिमा स्थापित की गयी। उसके बाद सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में नादिया के महाराज भवानंद ने तथा बरीसा के सुवर्ण चौधरी ने भी भव्य पूजा का आयोजन किया था। उसके बाद बड़े-बड़े जमींदारों ने इस शैली को अपना लिया। उस समय दुर्गा पूजा के समय पशुबलि भी दी जाती थी। बंगाल के राजा-रजवाड़ों ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया। समय के साथ-साथ व्यावसायिक वर्ग ने इसे और समृद्ध बनाया। जब उन्होंने अपने हित के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों को पूजा में आमंत्रित करना शुरू किया तो इसमें एक नया मोड़ आया। कोलकाता के शोवा बाजार के महाराजा नवकृष्णदेव द्वारा 1757 में राबर्ट क्लाइव को पूजा में निमंत्रित करना इस तरह का प्रथम उदाहरण था। इसके बाद पूजा प्रतिष्ठा का विषय बनने लगी। जब महत्वपूर्ण लोगों के सामने साधारण भक्तों की अवहेलना होने लगी तो दुर्गा पूजा ठाकुर दालानों से बाहर मैदानों में पंडाल लगाकर मनायी जाने लगी। 20वीं शताब्दी के शुरू में बारह लोगों द्वारा हुगली जिले के गुप्तीपाड़ा में हुई सार्वजनिक पूजा को पहली सार्वजनिक पूजा कहा जाता है। 1910 में बलरामपुर वसुघाट पर एक धार्मिक सभा द्वारा सार्वजनिक रूप में दुर्गापूजा मनाने के बाद इसका चलन बढ़ता गया। इसे बारोबाड़ी पूजा भी कहा जाता था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई बार सार्वजनिक पूजा को राष्ट्रीय फोरम के रूप में भी प्रयोग किया गया। धीरे-धीरे समूचे बंगाल में सार्वजनिक पूजा मनायी जाने लगी।


मूर्ति निर्माण की परंपरा

दुर्गा पूजा के इतिहास पर गौर करें तो यह पता चलता है कि दुर्गा पूजा के इतिहास को लेकर विद्वानों के अनेक मत है। फिर भी इस तथ्य से लोकमानस और विद्वान एक मत हैं कि 1790 में पहली बार कलकत्ता के पास हुगली के बारह ब्राह्मणों ने दुर्गा पूजा के सामूहिक अनुष्ठान की शुरुआत की। इतिहासकारों का मानना है कि बंगाल में दुर्गोत्सव पर मूर्ति निर्माण की परंपरा की शुरुआत ग्यारहवीं शताब्दी में शुरू हुई थी। आज बंगाल सहित पूरे देश में सांस्कृतिक वैभव के इस पर्व को जनजीवन में प्रतिष्ठान करने का श्रेय ताहिरपुर (बंगाल) के महाराजा कंस नारायण को दिया जाता है।  पहले की दुर्गा पूजा में सिर्फ मूर्ति के रूप में दुर्गा महिषासुर का वध करती नहीं दीखती थी, बल्कि पूजा की आखिरी पेशकश में पशु वध के रूप में प्रकट होती थी। अकसर भैसों का वध करके महिषासुर के प्रतीक का संहार किया जाता था लेकिन रायवंश में पैदा हुए शिवायन के प्रणेता कवि रामकृष्ण राय ने इस हिंसक प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया। आज दुर्गा पूजा, मूर्ति पूजा का एक प्रतीक है।

यहां कहारों की 'डोली' पर विदा होती हैं मां दुर्गा 

नवरात्र में मां दुर्गा की पूजा-आराधना के बाद दशमी तिथि (दशहरा) के दिन मां की विदाई की परंपरा है। आमतौर पर प्रतिमाओं के विसर्जन में ट्रक, ट्राली और ठेलों का प्रयोग होता है, लेकिन बिहार के मुंगेर जिले में बड़ी दुर्गा मां मंदिर की प्रतिमा के विसर्जन के लिए न तो ट्रक की जरूरत पड़ती है और न ही ट्राली की। यहां मां की विदाई के लिए 32 लोगों के कंधों की जरूरत होती है, और ये सभी कहार जाति के होते हैं। मुंगेर में इस अनोखे दुर्गा प्रतिमा विसर्जन को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। यह परंपरा यहां काफी समय से चली आ रही है और इस परंपरा का निर्वहन वर्तमान में भी हो रहा है। पुराने जमाने में जब वाहनों का प्रचलन नहीं था तब लोग बेटियों की विदाई डोली पर ही किया करते थे, जिसे उठाने वाले कहार जाति के लोग ही होते थे।  इसी कारण यहां दुर्गा मां की विदाई के लिए इस तरीके को अपनाया गया होगा, जो अब यहां परंपरा बन गयी है। मां की प्रतिमा के विसर्जन की तैयारी यहां काफी पहले से शुरू हो जाती है।  इसके लिए कहार जाति के लोगों को पहले से निमंत्रण दे दिया जाता है। इनकी संख्या का खास ख्याल रखा जाता है कि वे 32 से न ज्यादा हों और न कम।

कुछ साल पहले पूजा समिति के लोग प्रतिमा विसर्जन के लिए वाहन लेकर आए थे, लेकिन प्रतिमा लाख कोशिशों के बाद भी अपने स्थान से नहीं हिली। लिहाजा, अब कोई भी व्यक्ति दुर्गा मां की प्रतिमा विसर्जन के लिए वाहन लाने के विषय में नहीं सोचता। विसर्जन के दौरान लाखों लोग यहां जमा होते हैं और मां के जयकारे से पूरा शहर गुंजायमान रहता है।  विसर्जन से पूर्व यहां प्रतिमा को पूरे शहर में भ्रमण करवाया जाता है। विदाई यात्रा के दौरान बीच-बीच में मां के भक्त डोली को कंधा देकर अपने को धन्य समझते हैं।

 
 क्यों जलायी जाती है अखंड ज्योत

नवरात्र के नौ दिन माता के सामने अखंड ज्योत जलायी जाती है। यह अखंड ज्योत माता के प्रति अखंड आस्था का प्रतीक मानी जाती है। ज्योतिषविदों की माने तो यह अखंड ज्योत इसलिए भी जलायी जाती है कि जिस प्रकार विपरीत परिस्थितियों में भी छोटा का दीपक अपनी लौ से अंधेरे को दूर भगाता रहता है उसी प्रकार हम भी माता की आस्था का सहारा लेकर अपने जीवन के अंधकार को दूर कर सकते हैं। मान्यता के अनुसार दीपक या अग्नि के समक्ष किए गए जप का साधक को हजार गुना फल प्राप्त हो है। कहा  जाता है कि घी युक्त ज्योति देवी के दाहिनी ओर तथा तेल युक्त ज्योति देवी के बाईं ओर रखनी चाहिऐ। अखंड ज्योत पूरे नौ दिनों तक अखंड रहनी चाहिए यानी जलती रहनी चाहिऐ।

कैसे करे कन्या पूजन

अष्टमी और नवमी दोनों ही दिन कन्या पूजन और लोंगड़ा पूजन किया जा सकता है। सर्वप्रथम मां जगदंबा के सभी नौ स्वरूपों का स्मरण करते हुए घर में प्रवेश करते ही कन्याओं के पांव धोएं। इसके बाद उन्हें उचित आसन पर बैठाकर उनके हाथ में मौली बांधे और माथे पर बिंदी लगाएं। उनकी थाली में हलवा-पूरी और चने परोसे। अब अपनी पूजा की थाली जिसमें दो पूरी और हलवा-चने रखे हुए हैं, के चारों ओर हलवा और चना भी रखें। बीच में आटे से बने एक दीपक को शुद्ध घी से जलायें। कन्या पूजन के बाद सभी कन्याओं को अपनी थाली में से यही प्रसाद खाने को दें। अब कन्याओं को उचित उपहार तथा कुछ राशि भी भेंट में दें। जय माता दी कहकर उनके चरण छुएं और उनके प्रस्थान के बाद स्वयं प्रसाद खाने से पहले पूरे घर में खेत्री के पास रखे कुंभा का जल सारे घर में बरसाएं।  

पुराणों में नवरात्र

मान्यता है कि नवरात्र में महाशक्ति की पूजा कर श्रीराम ने अपनी खोई हुई शक्ति पायी थी, इसलिए इस समय आदिशक्ति की आराधना पर विशेष बल दिया गया है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार, दुर्गा सप्तशती में स्वयं भगवती ने इस समय शक्ति-पूजा को महापूजा बताया है। कलश स्थापना, देवी दुर्गा की स्तुति, सुमधुर घंटियों की आवाज, धूप-बत्तियों की सुगंध। यह नौ दिनों तक चलने वाले साधना पर्व नवरात्र का चित्रण है। हमारी संस्कृति में नवरात्र पर्व की साधना का विशेष महत्त्व है। नवरात्र में ईश-साधना और अध्यात्म का अद्भुत संगम होता है। आश्विन माह की नवरात्र में रामलीला, रामायण, भागवत पाठ, अखंड कीर्तन जैसे सामूहिक धार्मिक अनुष्ठान होते हैं। यही वजह है कि नवरात्र के दौरान प्रत्येक इंसान एक नये उत्साह और उमंग से भरा दिखायी पड़ता है। वैसे तो ईश्वर का आशीर्वाद हम पर सदा ही बना रहता है, लेकिन कुछ विशेष अवसरों पर उनके प्रेम, कृपा का लाभ हमें अधिक मिलता है। पावन पर्व नवरात्र में देवी दुर्गा की कृपा, सृष्टि की सभी रचनाओं पर समान रूप से बरसती है। इसके परिणाम स्वरूप ही मनुष्यों को लोक मंगल के क्रिया-कलापों में आत्मिक आनंद की अनुभूूति होती है।


अंजलि एवं आरती

पूजा हरेक दिन अंजलि एवं आरती का क्रम चलता है। अष्टमी का दिन दुर्गापूजा का सबसे शुभ दिन माना जाता है। लोग बड़े चाव से पूजा में भाग लेते हैं। अष्टमी को लगभग पूरी रात ही पंडालों में भीड़ रहती है, क्योंकि अष्टमी एवं नवमी के संधिकाल के समय मध्यरात्रि में सौंधी पूजा अर्थात संधी पूजा एक महत्वपूर्ण पूजा होती है। महत्वपूर्ण पूजा होती है। देवी के सामने 108 दीपक प्रज्जवलित किए जाते हैं। कहीं-कहीं आरती के समय ढाक की ताल के साथ स्त्रियां धूनी नृत्य करती हैं। रंगीन कपड़े और झालरों से सजे ढाक बजाने वाले ढाकी भी विशेष तौर पर बुलाए जाते हैं। पंडाल के अंदर का वातावरण पूरी रात भक्तिपूर्ण उल्लास से परिपूर्ण नजर आता है तो बाहर बनी दुकानों पर भी भीड़ लगी रहती है। इसके अलावा लोग एक पंडाल से दूसरे पंडाल को देखने बढ़ते रहते हैं। नवमी को भी पूजा का जोर बराबर बना रहता है। अंत में वह दिन भी आ जाता है जिस दिन दुर्गा को पारंपरिक ढंग से विदा किया जाता है। विजय दशमी के दिन मूर्ति के समक्ष दीप जलाकर स्त्रियां देवी को सोंदेश यानी संदेश का भोग लगाती हैं। उनके मस्तक पर सिंदूर लगाती है फिर शुभकामना स्वरूप उसी सिंदूरदानी से अन्य सुहागिनों को सिंदूर लगाया जाता है। इसके उपरांत शंख ध्वनि तथा जयघोष के बीच दुर्गा को अश्रुपूर्ण विदाई दी जाती है। आलीशान प्रतिमाओं को ट्रक आदि पर रख कर शोभा यात्रा के रूप में नदी के तट पर ले जाया जाता है, जहां बड़ी श्रद्धा से इन्हें जल में विसर्जन के बाद दो पक्षी आकाश में छोड़ने की परंपरा भी है। मान्यता यह है कि ये पक्षी कैलाश पर्वत जाकर शिव को दुर्गा के आगमन की सूचना देते हैं। लोग नदी से शांति जल पंडाल और घर में लेकर आते हैं और सब पर छिड़कते हैं। विसर्जन के बाद घर लौटकर छोटे बड़ो को प्रणाम कर उनका आर्शिवाद लेते हैं।


नारी सम्मान का पर्व है दुर्गा पूजा

दुर्गा पूजा का पर्व नारी के सम्मान, सार्मथ्य और स्वाभिमान की सार्वजनिक स्वीकृति का पर्व है। इसमें नारी की मातृशक्ति की उपासना सबसे ऊपर है। उस मान का सर्वोच्च दर्जा, जो एक स्त्री को जीवनदात्री के रूप में मिलता है। यह पर्व स्त्रीत्व के हर रंग के साथ ही शक्तिस्वरूपा मां दुर्गा की आराधना ममता, क्षमा और न्याय का भाव भी लिये है।

मातृशक्ति के वंदन का पर्व:-  शक्ति को साधने का उत्सव है दुर्गापूजा। नवरात्रि नवचेतना और नवजागरण का पर्व है। अपनी समस्त ऊर्जा का सर्मपण कर मां से यह अह्वान करने का दिन होता है कि हममे नयी शक्ति और सोच का संचार करे। यह एक ऐसा महापर्व है जो हमें आस्था और विश्वास के जरिए अपनी ही असीम शक्तियों से परिचय करवाने का माध्यम भी बन सकता है। यूं तो नारी की प्रखरता और शक्ति सार्मथ्य का नाम ही दुर्गा है, पर जिम्मेदारियों और सामाजिक बंधनों में जकड़ी महिलाएं अपने ही सार्मथ्य से अपरिचित रहती हैं। मन की शक्ति के उपार्जन का यह पर्व मातृशक्ति की उपासना को सर्वोच्च दर्जा देता है। भारतीय संस्कृति में मातृशक्ति को प्राणशक्ति माना गया है और उसका स्थान सबसे ऊपर है।

स्वीकारें बेटियों का अस्तित्व:- नवरात्रि में छोटी छोटी बच्चियों को कन्या पूजा के रूप में पूजने को रिवाज है। मां दुर्गा का स्वरूप मानकर उनका पूजन किया जाता है। यह रीत हमारे समाज में, संस्कारों, में बेटियों को दिए माननीय स्थान को रेखांकित करती है। माना जाता है कि इन कन्याओं के रूप में मां स्वयं आकर भोजन ग्रहण करती हैं। संसार के सृजन, पालन और इसे जीवंत बनाए रखने वाली मां शक्ति को नमन करने का यह पूजन पर्व बेटियों के अस्तित्व का मान और स्वीकार्यता देने का संदेश देता है। बेटियां वे दीपक हैं जिनसे मायका और ससुराल दोनों का आंगन रौशन होता है। बेटियां हर किसी के जीवन में रंग ही भरती हैं। बावजूद इसके वे हमारे समाज और परिवार में लक्ष्मी का रूप मानी तो जाती हैं पर वो दिल से स्वीकारी नहीं जातीं। नवरात्रि में किया जाने वाला कन्या पूजन आज के दौर में बेटियों को सम्मान देने और उनके अस्तित्व को स्वीकारनें की प्ररेणा देने वाला है। इतना ही नहीं उनके सुनहरे भविष्य के चिंतन के लिए भी समाज को सन्मार्ग दिखाने वाला त्योहार है।

 परंपरा निर्वाहन के पावन दिन:-  महाशक्ति देवी भगवती की उपासना के यह नौ दिन परंपरा के निर्वहन के गहरे अर्थ लिये हैं। माना जाता है कि देवी जीवन की जड़ता को दूर करती है। हमारे जीवन में धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषमता को दूर कर समाज और जीवन दोनों में संतुलन स्थापित करती है। जीवन में सुख समृद्धि और समझ की नींव रखता है। ये पावन नौ दिन परिवार, समाज और देश को संस्कारवान और संवेदनशील बनने का संदेश देते हैं। स्त्री को शक्तिरूपा, ज्ञानरूपा और मातृरूपा, हर रूप में स्वीकार्यता दिलाने को पर्व है। नौ दिन तक चलने वाली मां शक्ति की आराधना केवल धार्मिक कर्मकांड भर नहीं है। ये समय तो नकारात्मक वृत्तियों से दूर हो खुद को परिस्कृत करने का है। सही और गलत का बोध करवाने वाले इन पावन नौ दिनों में नारी शक्ति की दिव्यता का पूजन किया जाता है।


मां, जग तेरे चरणों में आयो मां, जग तेरे चरणों में आयो  Reviewed by saurabh swikrit on 7:24 am Rating: 5

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