12 ज्योतिर्लिंगों में एक है बाबाधाम


भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग देश के अलग अलग भागों में स्थित है। इन्हें द्वादश ज्योतिर्लिंग के नाम से भी जाना जाता है।  इन ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों को जन्म जन्मातर के सारे पाप से समाप्त हो जाते हैं। ये बारह ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के ऐसे स्थान हैं, जहां भगवान स्वयं ज्योति के रूप में विराजमान हैं। इन्हीं ज्योतिर्लिंग में एक है झारखंड के देवघर में स्थित बाबा वैद्यनाथ। इसे अमूमन बाबा धाम के नाम से जाना जाता है। श्री वैद्यनाथ शिवलिंग का समस्त ज्योतिर्लिंगों की गणना में नौवां स्थान है। यह सभी द्वादश ज्योतिर्लिंगों से भिन्न है। यही कारण है कि सावन में यहां ज्योतिर्लिंगों पर जलाभिषेक करने वालों की संख्या अधिक होती है। मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि किसी भी द्वादश ज्योतिर्लिंग से अलग यहां के मंदिर के शीर्ष पर 'त्रिशूल' नहीं, बल्कि 'पंचशूल' है।  पंचशूल के विषय में धर्म के जानकारों का अलग-अलग मत है। मान्यता है कि यह त्रेता युग में रावण की लंका के बाहर सुरक्षा कवच के रूप में स्थापित था। धार्मिक ग्रंथों के मुताबिक, भगवान विष्णु ने यहां शिवलिंग स्थापित किया था। उन्होंने एक ग्वाले का भेष धारण कर रावण को यहां रोका, जो कैलाश से शिवलिंग को उठाकर लंका ले जा रहा था।
वैद्यनाथ धाम का मेला दुनिया का सबसे बड़ा मेला है
बा वैद्यनाथ धाम में श्रावण मास में लगनेवाले मेले में लाखों नर-नारी हर साल एकत्र होते हैं। हालांकि यहां पर साल भर भक्तगण आते रहते हैं। बीबीसी लंदन के एक सर्वे में इसका उल्लेख किया गया था और दावा किया था कि वैद्यनाथ धाम का मेला दुनिया का सबसे बड़ा मेला है। यहां पर सावन में भोले के भक्तों का रेला लग जाता है। एक भोजपुरी फिल्म में महेंद्र कपूर का गाया गीत 'हाथी ना घोड़ा ना कवनों सवारी, पैदल ही अइबों तोर दुआरी! हे भोले नाथ.....बोल बम के नारा बा इहे एक सहारा बा...' खूब धूम मचाता है। इसके अलावा अन्य गायकों की भी जमकर कमाई होती है।
देश ही नहीं विदेशों से भी आते हैं बाबा के भक्त
श्रावण मास में देश के भिन्न-भिन्न स्थानों के साथ-साथ विदेशों में शिव भक्तगण कांवर चढ़ाने के लिए बाबा वैद्यनाथ धाम में पहुंचते हैं। यह मेला सुल्तानगंज से शुरु होता है और बाबा वैद्यनाथ धाम से बासुकीनाथ तक आकर पूर्ण होता हैं। इस प्रकार यह मेला 140 किलोमीटर तक फैला होता है जो अपने आप में एक आश्चर्य है। आश्चर्य की बात यह है कि यदि एक कांवरिया सुल्तानगंज में एक लोटा जल बाबा धाम पर चढ़ाने के लिए अपने आगे वाले कांवरियों को पास करता चला जाये तो हाथों हाथ देवघर पहुंच सकता है। इससे आप अंदाज लगा सकते हैं कितना बड़ा मेला लगाता है। सभी कांवरिया स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े भगवा रंग के कपड़े पहनकर चलते हैं। सुल्तानगंज से उनकी यात्रा शुरू होती है। वहां पर सब कांवरिये अपनी-अपनी कांवर में जल भरते हैं और अपने-अपने कांधे पर कांवर को रखकर संपूर्ण रास्ते में 'बोल बम' का नारा लगाते हुए आगे बढ़ते जाते हैं। सारे कांवरिये नंगे पैर एक-दूसरे को बोल बम कहकर पुकारते हुए बढ़ते हैं। इस स्थान पर कोई ऊंच-नीच की भावना नजर नहीं आती। सबका खान-पान भी लगभग एक सा रहता है। सभी एक ही मंजिल की ओर बिना किसी भेद-भाव के बढ़ते नजर आते हैं। 110 किमी लंबा सफर तय करने के बाद प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने घरों को लौटते हैं।
द्यों के वैद्य हैं बाबा वैद्यनाथ
इतना बड़ा मेला बाबा वैद्यनाथ धाम की मर्यादा में चार चांद लगा देता है। नासिक, प्रयागराज, उज्जैन एवं हरिद्वार में 12 वर्षार्ें में कुंभ का मेला लगता है। इन मेलों में भी इतनी संख्या में भक्त एकत्र नहीं होते जितने बाबा वैद्यनाथ धाम में श्रावण मास में कांवरिये एकत्र होकर वैद्यनाथ पर जल चढ़ाते हैं। इस श्रावणी मेले को सभी शिव भक्त बाबा वैद्यनाथ की अद्भुत लीला मानते हैं। बाबा वैद्यनाथ को वैद्यों के वैद्य माना जाता है।
किंवदंती है कि एक बार देवताओं के वैद्य अश्विनी कुमार अस्वस्थ हो गये। उनके अस्वस्थ होने से सभी देवी-देवता चिंतित हो गये। क्योंकि सबका इलाज करने वाला जब स्वयं हीं रोगी हो जाये और उसके पास अपनी बीमारी की कोई औषधि न हो तो दूसरों का चिंतित होना स्वाभाविक है। अंत में विवश होकर अश्विनी कुमार महादेव के पास आकर बोले, 'प्रभु! आपके अतिरिक्त इस संसार में ऐसा कोई नहीं है जो मुझे रोग से मुक्त कर सके।'
अश्विनी कुमार की विनती सुनकर महादेव ने उनको रोगमुक्त कर दिया। तब महादेव का नाम वैद्यनाथ पड़ गया तथा कामदलिंग को वैद्यनाथ कहा जाने लगा। बाबा वैद्यनाथ धाम में संसार के कोने-कोने से लोग अपनी-अपनी चिंताएं, अपने-अपने दुख और तरह-तरह की कामनाएं लेकर आते हैं। उनकी कामनाएं पूरी होने पर दोबारा उनके दर्शन करने आते हैं। भगवान वैद्यनाथ सबकी कामनाएं पूरी करते हैं। उनके कष्टों को दूर करते हैं। सभी को जो उनकी शरण में आते हैं आश्रय देते हैं। कितना ही असाध्य से असाध्य रोग क्यों न हो जो बाबा वैद्यनाथ की शरण में आता है वह ठीक हो जाता है। यह भी बाबा वैद्यनाथ की एक अद्भुत लीला ही है। वैद्यनाथ धाम में स्थापित ज्योतिर्लिंग देश के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है।
माता सती का हृदय है यहां
कहते हैं कि यहां पर सती का हृदय गिरा था। इसलिए इसे हृदयपीठ भी कहते हैं। मत्स्य पुराण के अनुसार इसे शक्ति पीठ भी कहते हैं। वैद्यनाथ स्थित ज्योतिर्लिंग की यात्रा करने वाले शिव भक्तों की सब मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
एक प्रच्चलित कथ यह भी है
 इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना में एक कथा प्रचलित है। एक बार राक्षस राज रावण हिमालय पर जाकर भगवान शिव के दर्शन प्राप्त करने हेतु घोर तपस्या करने लगा। उसने एक-एक करके अपने नौ सिर काटकर चढ़ा लिये। अब वह अपना अंतिम दसवां सिर काटकर चढ़ाने वाला ही था कि भगवान शिव उसके सामने प्रकट हुए। उन्होने उसके चढ़ाये हुए नौ सिरों को यथावत जोड़ दिया और वर मांगने को कहा। रावण ने वर के रूप में उस शिवलिंग को अपनी राजधानी लंका ले जाने की आज्ञा मांगी जिस पर उसने अपने शीश काट काटकर चढ़ाये थे। भगवान शिव ने उसे लिंग ले जाने की आज्ञा तो दे दी परंतु उसके साथ एक शर्त भी लगा दी कि यदि रास्ते में इसे कहीं रख दोगे तो यह वहीं अचल हो जायेगा। तुम इसे वहां से फिर उठा न सकोगे। रावण ने उनकी शर्त स्वीकार कर ली और शिवलिंग को लेकर लंका के लिए चल दिया। चलते-चलते एक जगह मार्ग में उसे लघुशंका की आवश्यकता होने लगी। वह उस शिवलिंग को एक अहीर के हाथों में थमाकर लघुशंका  के लिए चल पड़ा। उस अहीर को शिवलिंग का भार बहुत अधिक प्रतीत हुआ। वह उसके भार को संभाल न सका। विवश होकर रावण के लौटने से पहले ही उसने उसे वहीं भूमि पर रख दिया।
     रावण जब लौटकर आया तब फिर वह बहुत प्रयत्न करने के बाद भी उस शिवलिंग को न उठा सका। अंत में निरुपाय होकर उस शिवलिंग पर अपने अंगूठे का निशान लगाकर लंका लौट गया। तत्पश्चात ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओं ने वहां आकर उस शिवलिंग का पूजन किया। इस प्रकार वहां उसकी प्रतिष्ठा कर वे अपने अपने धामों को लौट गये। यहां ज्योतिर्लिंग श्री वैद्यनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाद में एक बैजू नामक एक भील ने शिवलिंग की पूजा एवं अर्चना की तथा आजीवन इसका अनन्य सेवक बना रहा। पुराणों में बताया जाता है कि जो मनुष्य इस ज्योतिर्लिंग का दर्शन कर लेता है उसे समस्त पापों से छुटकारा मिल जाता है। उस पर हमेशा भगवान शिवजी की कृपा बनी रहती है। दैविक, दैहिक, भौतिक कष्टों से छुटकारा मिल जाता है। उसे परम शांतिदायक शिवधाम की प्राप्ति होती है। ऐसा आदमी सदैव सभी के कल्याण और भलाई में लगा रहता है। हमें ऐसे आदमी का संग साथ अवश्य करना चाहिए।
भगवान राम ने चढ़ाई थी पहली कांवर 
कहते हैं कांवर चढ़ाने का प्रचलन त्रेता युग से प्रारंभ हुआ था। भगवान राम ने त्रेता युग अवतार लिया था। उन्होंने भगवान शंकर पर कांवर चढ़ाई थी। तभी से यह परंपरा आज तक द्वापर और कलियुग में भी चली आ रही है। श्रावण मास में समुद्र मंथन का कार्य प्रारंभ हुआ था जो पूरे मास चलता रहा समुद्र मंथन का कार्य देवता और असुरों ने मिलकर किया। इसलिए श्रावण मास में कावर चढ़ाने का विशेष महत्व माना जाता है। समुद्र मंथन में ऐरावत हाथी, उच्चश्रवा, लक्ष्मी, सरस्वती, कलश, चंद्रमा, अमृत एवं हलाहल आदि 14 रत्न निकले थे। हलाहल (विष) को छोड़कर शेष 13 रत्नों को सुरों और असुरो ने आपस में बांट लिया था। हलाहल का पान भगवान शंकर ने किया। भगवान शंकर ने जहर को गले ही में रहने दिया था। इस लिए उन्हें नीलकंठ भी कहा जाता है। विष के प्रभाव को कम करने के लिए भगवान शंकर ने अपने सिर पर चंद्रमा को धारण  कर लिया। विष की जलन को कम करने हेतु सभी देवता बाबा भोलेनाथ को गंगा जल चढ़ाने लगे। क्योंकि भगवान शंकर ने श्रावण मास में विषपान किया था इसलिए शिव भक्त श्रावण मास को ही कांवर चढ़ाने का उत्तम मास मानते है।
सालों भर रहती है कांवर की महिमा 
वैसे तो कांवर की महिमा बारहों मास निराली है। कांवर में भगवान शिव विराजमान रहते है। लेकिन मान्यता है कि बाबा वैद्यनाथ में शिव की विष ज्वाला को कम करने के लिए सबसे ज्यादा 12 महीने कांवर चढ़ायी जाती है। इसलिए यह बाबा वैद्यनाथ की एक अद्भुत लीला मानी जाती है। 
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